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सिरिसंतिनाहचरिए
भइ य 'तिन्नि वि एए निग्गहिऊणं करेमि तुह रुइयं । किंतु तए वि हु भद्दे ! मह मणइटुं विहेयव्वं ॥ ८५॥५९८६ ॥ अह जंपर सीलवई 'सामिय! आइससु जं मए कजं' ।
भाइ णिवो विहु 'सुंदरि ! तुह संगमलालसो अहयं' ॥ ८६ ॥ ५९८७ ॥
सा वि हि भाव “हा दिव्व ! हयास ! किं तए एयं । मह रूवं निम्मवियं अहिलसणीयं बहुनराणं ॥ ८७ ॥ ५९८८ ॥ जे सव्युत्तमकुलवंससंभवा जे विढत्तजसपसरा । जेसिं पणमंति सया नरनाहा पणयसिरकमला ।।८८।।५८९८९।। विहु कह विद्दविया इमेण पावेण मज्झ रूवेण ? । हा हा अहो ! अकजं, अणत्थखाणी अहं जाया ॥ ८९ ॥ ५९९०॥ एवंविहराईण वि मज्जाविलोयणम्मि मह रूवं । जायं अहो ! अकजं, धिद्धी मह जम्मभावस्स ॥ ९० ॥ ५९९१॥ हा दिव्य ! पाव ! णिग्घिण ! किं मह चित्तं न याणसे तं सि ? । जेण इमे मह उवरिं दढाणुराया तए विहिया ॥ ९१ ॥ ५९९२ ॥ जीवंती मज्झ सीलं न हु कोवि खंडए नियमा । जइ कोवि बलामोडी करिस्सए ता मरिस्सामि ॥ ९२ ॥ ५९९३॥ वरि अग्गमि पवेसो जलंतजाला कलावकलियम्मि । नो चेव सीलरयणस्स खंडणं जुज्जए कह वि" ॥९३ ।। ५९९४ ।। इय चिंतती भणिया रण्णा 'किं उत्तरं न मे देसि ?' । तो पञ्चागयचित्ता जंपइ एयारिसं वयणं ॥ ९४ ॥ ५९९५ ॥ 'देव ! न जं जम्मे विहु मणोरहाणं पि गोयरे आसि । लंभेण तस्स मज्झ अप्पा अइआउलो जाओ || ९५ ॥५९९६ ॥
१. धीधी जे० का० ॥ २. णसे तेसिं पा० ॥
सीलवईअ सीलस्स
रक्खणं
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