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बारसम
भवग्गहणं
सिरिसंति- जय जय भवसायरजलहिनित्थारणबोहित्थु । दितिय किउ उवयास पई लोयह अइसुमहत्थु ॥४५॥४६४५॥ नाहचरिए रुयगह अहोनिवासिणिह अम्हे आइय देवि ! । गायहं सोहिवि तह भवणु बोहारिय करि लेवि" ॥४६॥४६४६॥ उड्ढ रुयगवत्थव्यंग अन्नहु अटु दिसाकुमारि वरवण्णहु । आइय देवि तुरंत तुरंतिय नियवावारुमणेण सरंतिय ॥४७॥४६४७॥
पंचवण्ण वरमेह विउव्वहिं पुणु गंधोदगु पविरलु मुञ्चहिं।
धूलि असेस वि तिं अवसायहिं करि तंबालुय लेविणु गायहिं ॥४८॥४६४८॥ "भवरवितावुत्तावियह जिणवरु कंचणदेहु । जायउ सामिणि ! एहु तइं सामिउ अहिणवमेहु ॥४९॥४६४९॥ * देसणनीरिं भुवणयलु निव्वावेसइ एहु । धम्ममहाजलसंचयह निच्छई एहु जि गेहु ॥५०॥४६५०॥
पक्खालेसइ कम्ममलु जिणु भवियह नीसेसु । देवहं धम्महं धम्मियहं दक्खालिसइ विसेसु ॥५१॥४६५१॥ * जिंव वरिसंतउ अंबहरु न गणइ सम-विसमाई । तिंव तिरियंचहं माणुसहं जिणु अक्खिसइ वयाई ॥५२॥४६५२॥
गिम्हयालि जिंव पहियजणु आसासइ वर नीरु । तिंव भवियह आसासयरु एहु जिणु होसइ धीरु ॥५३॥४६५३॥ जिंव नइमाइसु को वि नरु पयडइ सोहणु तित्थु । तिंव भवसायरतरणसहु एहु कहेसइ तित्थु ॥५४॥४६५४॥
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१. विउज्बेहिं जे० ।। २. कुष्यहिं पा० विना ।।।