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पर चलने के लिए एक ऐसे अनुभवी सहायक पथप्रदर्शक व्यक्ति की आवश्यकता थी जो कि घुटनों के बल से मंजिल की ओर बढ़ते हुए मुझ को अपनी ऊंगलि का आलम्बन देकर उठाए, बार बार स्खलित होने पर भी प्रेम से समझाते हुए आगे बढ़ाए, प्राचीन प्रतियों में लिपिदोष, लिपिविकार, लिपिविकास तथा भाषा एवं विषयसम्बन्धी आर्ष, रूढ तथा पारम्परिकप्रयोगों आदि की विचित्रता, विषमतापूर्ण कठिनाइयों से हतोत्साहित बने मेरे मन को प्रेरणा देते हुए प्रोत्साहित करे, इस रास्ते पर चलने की हिम्मत बंधाए और इस राह के प्रत्येक मोड़, कठिनाइयां, समस्याएं, समाधान और मंजिल आदि सभी सम्बन्धित विषयों को स्पष्ट करे । यह कार्य किया मेरे साथ अंधेरी (मुंबई) महावीर जैन विद्यालय में रहते हुए विद्यागुरु श्रीमान् अमृतभाई जी ने । उन्हींकी सहायता और निर्देशन का यह परिणाम है कि मैं इस ग्रन्थ की साद्यन्त वाचना को इस रीति से तैयार कर सका।
प्रस्तुत ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के विषय में प्रस्तावनालेखक संशोधन-अन्वेषणशील, विद्याव्यासंगी विद्वद्वर्य पंन्यासप्रवर मुनिराज श्री प्रद्युम्नविजयजी महाराज साहेब ने तो अभ्यासपूर्वक विस्तार से लिखा ही है तो भी मैं सामान्य रूप से कुछ लिखना चाहता हूं।
कथाओं का महत्व और मूल
कथा एवं कथासाहित्य के प्रति लोकरुचि सदा से रही है। क्योंकि कथाओं के माध्यम से सामान्य और विद्वान् पुरुष भी सत्यासत्य तथ्यातथ्य, स्व-पर के हिताहित, लाभालाभ आदि विषयों को सुगमता और रुचि से स्वयं समझ सकते हैं तथा दूसरों को समझा भी सकते हैं। इसी कारण से भारतीय तथा भारतीयेतर परम्पराओं के साहित्य एवं लोकव्यवहार में प्रेरककथाओं, नीतिकथाओं, शिक्षाकथाओं,