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श्रावकधर्मपञ्चाशक
चूर्णिः ।
।। ९८ ।।
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सुसाहुभूओ य । सर्विदियसंजमओ सूसणओ य साहूणं ॥ १ ॥ इरिएसन भासासु य निक्खेवंमि तहा विसग्गे । तं कालमप्पमतो जह साहुजणा तह हवेजा ।। २ ।। " एवमादि संपयं एयस्स अइयारा भन्नंति
जगणं पणिहाणं इह जह जत्तओ विवजेइ । सइअकरणयं अणवट्टियस्स तहकरणयं चैव ।। २६ ।। जोगाणं - मणवयणकायाणं दुप्पणिहाणं- सावजे पयट्टणं इह - सामाइए जत्तओ - आयरेण विवज्जइ-परिहरेति, एए तिन्नि अइयारा, तह सइअ करणयंति सइए-सुमरणस्स अकरणं- अणासेवणं सइअकरणं, किं भणियं होइ ?, भण्णइ-अइमायाओ न एवं सुमरे, अनुगवेलाए मए सामाइयं कायवं, अहवा न याणइ किं सामाइयं कथं न कयं वत्ति, "सुमरणमूलं च मोक्खाणुट्ठाणं "ति, अणवट्टियस्स-अत्थिरसरूवस्स सामाइयस्स तहत्ति अइपमाइयवसेण करणं- आसेवणं, जो सामाइयकरणाणंतरमेव चयइ, जहिच्छाए वा करेड़, तस्स अणवद्वियकरणंति भन्नइ, चेवस दो समुच्चये, अयमेसिं भावत्थो - “ सामाइयंति काउं घरकञ्जं जो य चिंतए सड्डो | अट्टवसट्टोवगओ निरत्थयं तस्स सामाइयं ॥ १ ॥ कडसामइओ पुर्वि बुद्धीए पेहिऊण भासेजा। सह निरवञ्जं वयणं अन्नद सामाइयं न भवे || २ || अनिरिक्खियापमजियथंडिल्ले ठाणमाइ सेवतो । हिंसाऽभावे वि न सो कडसामइओ पमायाओ || ३ || न सरइ पमायजुत्तो जो सामाइयं कया उ काय ? । कयमकयं वा तस्स हु कयंपि विफलं तयं नेयं ॥ ४ ॥ काऊण तक्खणं चियं पारेइ करेइ वा जहिच्छाए । अणवट्ठियसामइयं अणायराओ न तं सुद्धं || ५ || " नणु मणोदुष्पणिहाणासु सामाइयस्स निरत्थगत्ताइभणणेण परमत्थओ अभाव एव कहिओ, अध्यारो य मालिनसरूवो चेव होइ, अओ सामाइयाभावे कहं अइयारो ?, तओ मंगा चैव एते, न अइयारा, सच्चमेयं, किंतु अणाभोगओ अइयारा होंतित्ति । नणु दुविहं तिविण
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सामायिक
व्रतस्य पञ्चातीचाराः
।। ९८ ।।
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