SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - aor अर्थ-(जीव के) हे प्राणिन् ! (सयणगणा के०) माता, पिता, नाइ, स्त्री, NO पुत्रादिक वजननो समूह जे ते, (बहुप्रारंन के) तें, खेतीप्राविक घणा आरंने करीने (विढत्तं के) उपार्जन कर्यु एवं, जे (वित्तं के०) धन, ते प्रत्ये अर्थात् ते धने करीने, तेन (विलसंति के०) विलास करे . अर्थात् ते धन, फल ते स्व | जनादिक जोगवे . (पुणो के०) वली (तऊणिय के) ते प्रारंने करीने नत्पन्न वयु एवं, जे (पावकम्मं के) पाप कर्म, तेने (तुमं चेव के०).तुं एकलोज (अ| णुहवरित के०) अनुलव करीश. अर्थात् नरकादिकने विषे ते पाप, फल तुं एक | *लोज नोगवीश. ॥ २०॥ | नावार्थ-हे जीव! ते अनेक प्रकारे जीव हिंसा तथा कूमकपट उलन्नेद प्र |पंचादिक केटलाक अनर्थ करी, तथा नीच सेवादिक घणां अकर्तव्य करी, तथा अनेक प्रकारे परदेशमां नमीने, तालमा प्रमुखमांमरणांत कष्ट माथे लेश्ने, तथा पोताना स्वधर्मनो पण त्याग करीने तथा रात्रि दिवस शरीरनुं सुख पण न गणीने, धन उपार्जन कर्यु; परंतु ते धनने वजन तथा ज्ञाति आदिक लोक, ३ KIXXXXXXXXXXXXXXXXXX **XXXXXXXXXXXXXXXXX Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy