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________________ (***XXXXXXXXX************ सकलः अपि जनः पश्यति का शक्तोऽस्ति. वेदनाविगमे ७0 0 १० १२ १३ ११ - सयलो विजणो पिडई। को सक्को वेणाविगमे ॥२०॥ अर्थ-(वाहि के) व्याधिये करीने (विलुत्तो के) नपश्व वालो एवो (जीवो के) जीव जे ते (निद्यले के) जल रहित प्रदेशने विषे (सफरोश्व के) मानलानी पेठे (तमप्फमई के तमफळे , एटले आकुल व्याकुल थाय. ते प्रका रना रोगे करीने पीडाता प्राणीने (सयलो वि के) सकल एवो पण (जणो के) * जन. एटेले लोक जेते (पिन के) देखे . परंतु ते जीवनी (वेअणाविगमे के०) | वेदनानो नाश करवाने विषे (को के) कोण पुरुष (सक्को के) समर्थ होय? - पितु कोर पण समर्थ न होय ॥२०॥ नावार्थ-श्रा जीव अनेक प्रकारना व्याधि वसे ग्रस्त श्रश्ने ज्यारे जलविना ना माग्लानी पेठे तमफळे , ते वखत मा! न बाप!! इत्यादिक सामाने अतिदो करुणा उत्पन्न श्राय एचा पोकार करे डे; त्यारे तेनी वेदनाने लेशमात्र For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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