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________________ बै० १२५) ************************* ah (थिरो के०) स्थिर एवो. अने (निम्मलो के० ) निर्मल एवो. अने (साही लो के०) पोताने स्वाधीन एवो (धम्मो के०) धर्म जे ते ( विढप्पर के ० ) उपार्जन थइ शके बे, तो (ता के० ) त्यारे तहारे (किं न पज्जतं के० ) शुं न प्राप्त थयुं ? अर्थात् सर्वे प्राप्त थकुं ॥ ए४ ॥ जावार्थ- हे जीव ! अशाश्वता देदवमे परलोकमां निरंतर सहायकारी एवो धर्म उपार्जन थाय बे, तो शुं न परिपूर्ण थयुं ? अर्थात् सर्वे परिपूर्ण श्रयुं. एटले घणो महोटो लाज मल्यो, एम जाणवु. तेमज या मलमूत्र झरेला देहव निर्मल एवो जिनधर्म उपार्जन याय सो, गुं परिपूर्ण लाज न मब्यो कहेवाय ? अर्थात् जगत्मा जेटला लाज कदेवाय छे, ते सर्वे लान मली कदेवाय. तेमज रोगादिकने प्राधीन एवा वेदवमे जो स्वाधीन एवो जिनधर्म मले, तो शुं एने कांइ पण मलवानी खामी रही कद्देवाय ? अर्थात् नज कहे चूक्याज वा. कां Jain Education Innal चिन्तारत्नमन चेत्माप्यते काच संचयैः ॥ For Private & Personal Use Only ************************ To |११५ mainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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