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________________ K****** ************** अर्थ-हे जीव! (तुमं के) तने (तएडा के०) तृष्णा. अर्थात् तृपा (तारिसी शम के) ते प्रकारनी (अतखुत्तो के०) अनंतीवार (संसारे के) नरकरुप संसारने* विषे (प्रासी के) नत्पन्न थइ हती. (जं के०) जे तृषाने (पसमेनं के०) झामाव वाने अर्ये (सबोदहीग के०) सर्व समुशेनुं पण (नदयं के०) जल जे ते (तीरिजा के०) न समर्थ श्राय !!! ॥६५॥ आ प्रकारको अर्थ प्रश्रम नरकनी वेदनामां कही गया जीए. माटे पुनरुक्ति * दोषनुं निवारण करवा माटे आ प्रकारनो लावार्य जाणवो. के, हे जीव! तने अ नंती तृष्णा नत्पन्न बने, के, ते तृष्णा शमाववाने माटे, सर्व समुशेना पाणी *ना बिंध जेटलां धनादिक वो पण तहारी तृष्णा पूरी श्राय तेम नश्री. ते कां ठेके, यत्राथियां ब्रीहियवं । हिरण्यं पशवः स्त्रियः ॥ नालकस्य तत्सर्व । मिति पश्यन्न सुह्याते ॥१॥ | अर्थ-सघली पृथ्वीमां नत्पन्न भएली अनेक प्रकारनी मांगेर तथा अनेक प्र *कारना घनं अने जव विगेरे सघलुं धान्य, जो एक जगने प्राप्त थाय, तोपण ते- un Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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