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धनधान्यानर गाने गृहस्व जनकुटुंबं मुक्तवापिधणधन्नाहरणाई। घरसयणकुसुब मिल्लेवि ॥५६॥ अर्थ-(अणाहो के) अनाथ एवो, (जीवो के०) जीव जेते (धणधन्नाहरणाई के) धन, धान्य, अने आनरणोने तथा (घरसयणकुडुंब के०) घर, स्वजन, अ
ने कुटुंब जे तेमन ( मिल्लेवि के०) मूकीने पण (कम्म वाय हन के) कर्मरूप * वायुए करीने हणायो सतो (कुम्मस के) वृतना (पुप्फ व के) पुष्पनी पेठे। A (जा के०) जाय . अर्थात् देठे पो . ॥ ५६ ॥
नावार्थ-जेम वायुथी पराधीन थएलु पुष्प, थोमीवारमां नीचे पड़ी जाय । , तेम आ जीव पण कर्मे प्रेख्यो सतो धन, धान्य, कुटुंब परिवार, घर हाट, हात kiवेली अने महोटी महोटी ईमारतो, तथा सारां सारां घरेणां इत्यादिक साह्यबी
मकीने, अनाथ एटले रांक जेवो प्रश्ने, नरकादिक धुर्गतिने विषे जाय . त्या | गया पठी पूर्वे कहेली कोइ पण वस्तु ते जीवने खप लागती नथी, माटे हे जी. Mail
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