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________________ ************************ विषमाणः तीक्ष्णः खं अनंतान् पुगनपरावर्तान् यावत् 6 ७ विसहतो तिकडं | अंतपुग्गल रावते ॥ ५० ॥ अर्थ - (रे जीव के०) हे जीव ! (विविहकम्मवसा के०) नाना प्रकारना कवशे करीने ( तंमिके) ते ( निगम के ० ) निगोदनी मध्ये (वि के०) प( पुग्गल रावत्ते के०) अनंत पुल परावर्त्त काल सूधी एटले अनंता सूक्ष्म क्षेत्र पुल परावर्त्त काल पर्यंत, तुं (तिरकडुहं के० ) तीक्ष्ण दुःखने (वि सतो के०) सहन करतो सतो ( वसिल के०) रह्यो बुं. ॥ ५० ॥ नावार्थ - तेवां दुःखने या जीवे ज्ञानावरणादिक कर्मना वश थकी नंतीवार जोगव्यां वे. माटे हवेथी तेवां दुःखो न जोगववां पसे, तेवा नद्यां तत्पर वुं ॥ ५० ॥ निःसृत्य कथमपि ततः प्राप्तः ย ‍ ३ ६ १ पुद्गल परावर्त्तनुं स्वरूप आगल कहींशुं. Jain Education Intal coral For Private & Personal Use Only मनुजत्वमपि रंजीव ध ************************* jainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
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