SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Education Inter ब्रज्या ग्रहण करजे." त्यार पढी ते कुमार फरीने या प्रकारे कहेतो हवो. अंब ! हे तात! जे तमे शरीरनुं स्वरूप कह्यं, ते मनुष्य संबंधि शरीर, खलु कहे| तां निश्वे दुःखनुंज स्थानक बे, अने नाना प्रकारनी शैंकको व्याधियोने रहेवानुं घर एवं अने दामका रूप लाककांथी नृत्पन्न थएलुं एवं; अने नसाजाले करीने विंटाएलुं एवं, प्रने माटीना जांरुनी पेठे दुर्बल एवं, अने अशुचिना पुनलोए करीने व्याप्त एवं, अने समी जवुं पडी जवुं, अने नाश श्रवं ए बे धर्म नाम स्वभाव ते जे नो एवं प्रा शरीर, प्रथम अथवा पढी जरूर त्यागवा जोग्य थशे. एकारल माटे आवा शरीरमां कोण बुद्धिवंत पुरुष रीऊ पामे? एटले जे बुद्धिशाली पुरुष होय, ते तेवा शरीरमां रंजित नज थाय." ए रीते कुमारे कयुं. त्यार पढी कुमारनां माता पिता फरीने कहेतां दवां. "हे पुत्र ! प्रातदारा बापदादाश्री आवेलुं एवं विस्तारवंत धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख प्रवालां यदि पोताने वश्य एवं प्रधान व्य बे. जे व्य सात पेढी सूधी, प्रतिशे दीनादिकने एटले गरिब लोको ने थापवा मांमधुं श्रने पोते जोगववा मांगचं होय तोपण कय न थाय, एटले For Private & Personal Use Only ainelibrary.org
SR No.600048
Book TitleVairagyashatakama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra D Shastri
PublisherRamchandra D Shastri
Publication Year
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationManuscript
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy