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श्रीकल्प
७-सूरस्वप्नफलम् छाया-सूरदर्शनेन असौ लोकालोकमकाशको भविकमलविकासको भव्य-हृदय-कुहर-चरा-नन्तप्रचण्ड-मार्तण्ड-मण्डल-तरुण-किरणदुर्भेद-चिरन्तना-ऽनादि-गाढ-मिथ्यात्व-तिमिर-प्रणाशको धर्मगगनाङ्गणे साक्षात् अतिशयतेजःपुञ्ज इव भविष्यति ॥९० ३७॥
टीका-'सूरदसणेणं' इत्यादि । सूरदर्शनेन-मूरः पूर्यः तदर्शनेन असौ लोकालोकप्रकाशकः-लोकःपञ्चास्तिकायात्मकः, ददिनोऽलोकः, तयोः प्रकाशकः = मरूपका, भविकमलविकासकः-विनः भव्यमाणिन:
सत्र
॥४८६॥
७-सूर्यस्वप्न का फल मूल का अर्थ-'सूरदसणेणं' इत्यादि। सूर्य-दर्शन से वह (१) लोक-अलोक का प्रकाशक, (२) भव्य-जीव रूपी कमलों का विकास करने वाला, (३) भव्यों के हृदयरूपी गुफा में स्थित, अनन्त प्रचण्ड माँ की तीव्र किरणों से भी न भेजा सकने वाले चिरकालीन या अनादिकालीन मिथ्यात्वरूपी अन्धकार का विनाश करने वाला, (४) धर्मरूपीगगनांगण में प्रत्यक्ष अतिशय तेज के पुज के समान होगा॥मू०३७॥ ... टीका का अर्थ--'सूरदसणेणं' इत्यादि। सूर्य का स्वप्न देखने से वह बालक (१) पंचास्तिकाय रूप लोक का और उससे भिन्न अलोक का प्रकाशक अर्थात निरूपण करने वाला होगा, (२) वह भव्यमागी रूपी कमलों को विक
सूर्यस्वंश फलम,
૭–સૂર્યસ્વપ્નનું ફળ भूगने -"सूरदसणेणं" त्याल. सूर्य-श नथीत [mas-मन A, [२] १०५-७३५ी કમળને વિકાસ કરનાર, [ક] ભાનાં હદયરૂપી ગુફામાં રહેલ, અનંત પ્રચંડ સૂર્યના તીવ્ર કિરણે વડે પણ ન ભેદી શકાય એવા ચિરકાલીન અથવા અનાદિકાલીન મિથ્યાત્વરૂપી અંધકારને નાશ કરનાર, [૪] ધર્મરૂપી ગગનાંગણમાં પ્રત્યક્ષ અતિશય તેજના પંજ સમાન થશે. (સૂ૦૩૭)
-झयदसणेण' या. सूर्यनुन पाथीभ [] यातिय३५ ने भने તેનાથી ભિન્ન હોવાને કાશ એટલે કે નિપુણ કરનાર થશે. [૨] તે ભવ્ય પ્રાણીરૂપી કમળને વિકસિત કરશે. તથા [૩]
॥४८६॥
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