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प्रथम्न
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सदा नमस्कार करते हैं और प्रतिदिन भक्तिपूर्वक स्तुति करते हैं। हे नाथ ! हम भक्तिहीन आपकी स्तुति || कैसे कर सकते हैं ? परन्तु स्वार्थकी सिद्धिके कारण अर्थात् अपने कल्याणकी इच्छासे लज्जित नहीं होते हैं
|| चरित्र स्तुति करते हैं ।१७-२१॥ आपने जगतके वन्धनको नष्ट करके निर्मल केवलज्ञान प्राप्त किया है, राजीमती आदि प्रिय जनोंको तथा राज्यको आपने दूरहीसे छोड़ दिया है, माया मोह काम क्रोध और लोभादि शत्रुओंको हे प्रभो ! आपने ध्यानके योगसे जीत लिया है । आप सारे लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाले सूर्य हैं और निर्दोष जड़तारहित, धीर तथा निष्कलंक चन्द्रमा हैं । आपने आत्मा
और शरीरको पृथक चिन्तवन करके आत्मतत्त्वको जाना है और इसी उत्कृष्ट तत्त्वको आपने सप्त भंगी वाणीमें वर्णन किया है ।२२-२५। अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे हुए पुरुषोंके चक्षुओंको आप ज्ञानरूपी अंजनकी सलाईसे उघाड़नेवाले सूझते करनेवाले और भव्योंको जगतरूपी समुद्रसे तारनेवाले हो । इसप्रकार अनेक गुणोंके धारनेवाले हे नेमिनाथ ! हे तीन लोकके गुरु श्रापको मैं बारम्बार नमस्कार करता हूँ।२६-२७। इस प्रकार स्तुति करके और हाथ जोड़कर नमस्कार करके श्रीकृष्णजीने भगवानसे धर्मका स्वरूप पूछा। तब उन्होंने जगसे पार करनेवाला धर्म दो प्रकारका है, एक तपस्वियोंका और दूसरा गृहस्थोंका। जीव, अजीव पाश्रव आदि सात तत्त्व जैनधर्ममें कहे गये हैं। इनमें पुण्य और पापको मिलानेसे नव पदार्थ हो जाते हैं। लोकमें ये नव पदार्थ भी प्रसिद्ध और माननीय हैं। जीव पुद्गल धर्म, अधर्म अाकाश और काल ये छह द्रव्य होते हैं। इनमेंसे काल द्रव्यको छोड़कर पांचको अस्तिकाय कहते हैं। प्रात्मा न्यारा है, कर्म न्यारे हैं और शरीर न्यारा है । परन्तु संसारमें आत्मा कर्मकी फांसीमें फँस रहा है, इसलिये तत्व और अतत्वको सच्चे और झूठेको नहीं जान सकता है। जैसेकि बादलोंके आ जानेसे सूर्य और चन्द्रमा । लेश्या छह प्रकारकी हैं, जिनमेंसे पहली पीत पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ हैं, तथा भव्य जीवोंके होती हैं और शेष कृष्ण नीला और
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