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प्रद्युम्न
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बाती थी, खूब जाड़ा पड़ता था, तब ऐसे उत्तम स्थानमें जहां कि हवा नहीं आती थी, शीत नहीं होता था, कालागुरु, कपूर और धूपका गरम धुआँ व्याप्त रहता था, अपनी स्त्रियोंके साथ श्रानन्दक्रीड़ा करते और दूसरे लोगों को पुण्यका फल दिखलाते थे |४०-४३ | जब शिशिरऋतु आती थी, तब रुई भरे हुऐ वस्त्रोंसे, उष्ण भोजनोंसे, सुगन्धित वस्तुओं से, अग्नि के तापसे और रूपयौवनसे उन्मत्त हुई तथा कामवाणोंसे घायल हुई स्त्रियोंके निरन्तर सेवनसे शीतका निवारण करके जवानीके सुख भोगते थे । मानों वे प्राणियोंको बतलाते थे कि ये सब सुख पुण्यसे प्राप्त होते हैं ।४४-४६ । जब मानिनी स्त्रियोंका मान भंजन करनेवाला वसन्त उत्तमोत्तम फूलोंकी भेंट लेकर प्रद्युम्नकी सेवामें उपस्थित होता था, अर्थात् जब वसन्तऋतु आती थी, तब मौलसिरी, कमल, चम्पा, अशोक, टेसू आदि अनेक वृत्तों सेभूषित हुए मनोहर वनमें जाकर सुगन्धित जलसे भरी हुई वापिकाओं में अपनी प्यारी स्त्रियोंके साथ जलविहार करते थे ।४७ ४६ । ग्रीष्मऋतुमें शीतल ई टोंके बने हुए महलोंमें चन्दन, केशर, बारीक वस्त्र, मनोहर शीतल भोजन, पान, ताड़के पंखे और नानाप्रकार के सुगन्धित पदार्थों का सेवन करते हुए अपनी कामिनियों के साथ उत्कृष्ट भोग भोगते थे । ५० ५१। और जब वर्षा ऋतु प्राप्त होती थी, तब जहां वायुका वेग नहीं होता था, ऐसे रमणीय तथा विशाल भवनों में नृत्य करती हुई स्त्रियोंके मनोहर गीत सुनते हुए पुण्यका फल भोगते थे । ५२-५३ । इसीप्रकार से शरदऋतु में अनेक स्त्रियाँ जिसकी सेवा करती थीं, ऐसा प्रद्युम्न ऊँचे २ महलोंमें रहकर गन्ना, धान्य, मूंग, तालाबों का जल और रात को चन्द्रमा की चांदनीका सेवन करते हुए लोगोंको पुण्यका फल दिखलाते थे । ५४-५५ । सारांश यह है कि प्रद्युम्नकुमार छहों ऋतुओं में इच्छानुसार सुख भोगते थे ।
प्रद्युम्नकुमारके मस्तकपर श्वेत छत्र रहता था और मनोहर चंवर दुरते थे । विद्वान लोग, देवोंके समूह, विद्याधर और भूमिगोचरी राजा स्नेहके भारसे वशवर्ती हुये उनकी सेवा करते थे । बंदी
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