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अञ्जन
15. दर्पण :-आत्माऽऽलोकविधौ जिनोऽपि सकल-स्तीवं तपो दुश्चरं; प्र.कल्प
दानं ब्रह्म परोपकारकरणं, कुर्वन् परिस्फूर्जति । ॥५२॥
सोऽयं यत्र सुखेन राजति स वै, तीर्थाधिपस्याग्रतो,
निर्मेयः परमार्थवृत्तिविरैः, संज्ञानिभिर्दर्पणः ॥ ८ ॥ ( शार्दूलविक्रीडित ) त्यार बाद उभा थई हाथमा श्रीफळादिनो थाळ लई अष्टमंगळना पाटला उपर नीचेनो श्लोक बोली पधराव :
नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिदपडिमाओ।
दवजिणा जिणजीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥ १ ॥ ( आर्या) पछी ते अष्टमंगळनो पाटलो स्थान उपर मकता नीचेनो मंत्र बोलवो:
ॐ अहं स्वस्तिक-श्रीवत्स-कुम्भ-भद्रासन-नन्द्यावर्त-वर्द्धमान-मत्स्ययुग्म-दर्पणान्यत्र-जिनविम्बा- | अन सुस्थापितानि, सुप्रतिष्ठानि, अधिवासितानि लं लं लं हौँ नमः स्वाहा ॥
॥ इति अष्टमङ्गल पूजन विधिः ॥ त्यार बाद श्रीशान्तिजिनकलश कहेबो.
॥ इति तृतीयदिनविधिः ॥
AURAHASRACK
॥५२॥
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