________________
कल्पसूत्र
३३६
Jain Education International
आरामंसि वा अहे उवस्तयंसि वा अहे वियडगिहंसि वा अहे रुक्खमूलंसि वा उवागच्छित्तए, नो से कप्पइ पुव्वगहिएणं भत्तपाणेणं वेलं उवायणावित्तए, कप्पइ से पुव्वामेव वियडगं भुच्चा पच्छा पडिग्गहगं संलिहिय २ संपमज्जिय २ एगाययं भंडगं कट्टु [ जाव सेसे सूरिए ] जेणेव उवस्सए तेणेव उवागच्छित्तए, नो से कप्पर तं रर्याणि तत्थेव उवाणावित्त ॥ २५८ ॥
वासावासं पज्जोसवियस निग्गंथस्स गाहावइकुलं पिंडवायपडिया अणुपविट्ठस्स निगिज्झिय २ वुट्टिकाए निवइज्जा, कप्पर से अहे आरामंसि वा अहे उवस्स्यंसि वा जाव उवागच्छित्तए, तत्थ नो arrs एगस्स नग्गंथस्स एगाए य निग्गंथीए एगयओ चिट्ठित्तए, तत्थ नो कप्पइ एगस्स निग्गंथस्स दुत य निग्गंथीणं एगयओ चिट्ठित्तए,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org