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________________ सं० तरंगवई कहा 114 11 Jain Education In यले विलोडिया तत्थ हं घरिणि ! || १८ || सुमिणंतरदंसणेण य लद्धो सि भए ( प ) हाणगुणो । ज तत्थ आसियं रुण्णमिणं तेण जायं ॥ १९ ॥ याणि य अण्णाणि य तत्थ अहं कलुगाणि विलवामि । पियविप्पओगदुस्पहसोगेणुवधरि ( गहि ) या घरिणि ! |||२०|| आवाणयमि केहिं वि भडेहिं एयंमि देसकालंमि । कण्णसुहयं सुमहुरं इय तह गीयं सत्तरस्यं । २१ (९) | | अगणियनयपडिया वायस्स साहसं कम्ममारभंतस्म । पुरिसस्य एगंतरिया होइ वित्रत्ति व्व सिद्धी वा || २२ || " आरंभमाणस्स फुडं लच्छी मरणं वा होइ पुरिसस्स । तमणारंभ (मे) वि (मरणं) होइ निययं न उण लच्छी ॥ २३ ॥ सव्वस्स एड मच्चू रत (त्ति) रह पियमप्पणी लहुं काउं । पुण्णमणोरहट्ठस्स होइ मरणं पि किर सहलं ॥ २४ ॥ न विसाओ कायन्त्रो सुठु वि वसणविमुहेण पुरिसेण । (६) दिवइणय पुणो खणेण पव्वामलइ लच्छी ||२५|| विपमदसमस्सिएण वि पुरिसेग [विषण्णपुरिसेण] चित्रण्णपुरिसकारेण । दुक्खं पिवैसउं पियाए समं सुहं होइ " ॥ २६ ॥ एवं सोऊणं पिओ घरिणि ! गीयत्थचोइओ इणमो । सोयपीणसोणी (१) सुण ताव वि पिए ! इमं वयणं ।। २७ ॥ पुव्त्रकयकम्म निव्वतियस्स कंते ! निगूढमंतस्स । वसणमिउदीह केणि (ण) न पलाइउं सका ||२८|| “किं वजंतो वि पिए! अवसो पावइ वसं कर्यतस्स । न हु उज्जयं निवारेइ कोइ व्हार (पहरे ) सुहिकंठो (तो) ।। २९ ।। नक्खत्तं च सगहनायगस्स जड़ ताव अमयगन्भस्स । चंदस्य एह वमणं नासगो पायजणंमि ।। ३० ।। अध्यकयकम्मविवागखेत्तदव्वगुणकालंजुत्तो | सुहदुक्खस्स विभागो नवरि निमित्तं परो होइ । ३१ ॥ गतं मा होहि विसष्णा सुंदरि ! सव्वेण जीवलोयंमि । सुहदुक्खविसेस करं [ते] (न) विहाणं लंघिउं सका" ||३२|| तो तत्थ अहं घरिणी ! पियस्स सण्णवणवयणगहियत्था । १ हो । २ अ० विसहेउं । ३ अ० समयं । For Private & Personal Use Only ।। ६५ ।। nelibrary.org
SR No.600009
Book TitleTarangvaikaha
Original Sutra AuthorPadliptsuri, Nemichandrasuri
Author
PublisherJivanbhai Chotabhai Zaveri
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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