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श्रीपञ्चव. ३ गणाण्णा
॥३०४॥
इहरा छेवट्टम्मी संघयणे थिरधिईएँ रहिअस्स । देहस्सऽसमाहीए कत्तो सुहझाणभावोत्ति ? ॥ १६७५ ॥ चरणभातयभावम्मि अ असहा जायइ लेसावि तस्स णियमेणं तत्तोअपरभवम्मि अतल्लेसेसुंतु उववाओ॥१६७६।। वाभावी तम्हा उ महंमाणं पचक्खाणिस्स सवजत्तेणं । संपाडेअचं खलु गीअत्थेणं सुआणाए ॥ १६७७॥
भक्तपरिसो चिअ अप्पडिबद्धो दुल्लहलंभस्स विरइभावस्स । अप्परिवडणत्थं चिअतं तं चिट्ठ करावेद ॥ १६७८ ॥
ज्ञाध्यानम् तहवि तया अद्दीणो जिणवरवयणमि जायबहुमाणो।
संसाराओं विरत्तो जिणेहिं आराहओ भणिओ॥ १६७९ ॥ जंसो सयावि पायं मणेण संविग्गपक्खिओ चेव । इअरोउ विरइरयणं न लहइ चरमेऽवि कालम्मि॥१६८०॥ संविग्गपक्खिओ पुण अण्णत्थ पयदिओऽविकाएणं।धम्मे चिअतल्लिच्छोदढरतिस्थिव्व पुरिसम्मि॥१६८१॥ तत्तो चिअ भावाओ णिमित्तभूमि चरमकालम्मि । उक्करिसविसेसेणं कोई विरईपि पावेइ ॥ १६८२ ॥ जो पुण किलिट्ठचित्तोणिरविक्खोऽणत्थदंडपडिबद्धो। लिंगोवघायकारी ण लहइ सो चरमकाले वि॥१६८३॥ चोएइ कहं समणो किलिट्ठचित्ताइदोसवं होइ । गुरुकम्मपरिणईओ पायं तह दवसमणो अ॥१६८४॥ गुरुकम्मओ पमाओ सो खलु पावो जओ तओऽणेगे। चोद्दसपुत्वधरावि हु अणंतकाए परिवसंति ॥१६८५॥3॥३०४॥ दुक्खं लगभइ नाणं नाणं लभ्रूण भावणा दुक्खं । भाविअमईवि जीवो विसएस विरजई दुक्खं ॥१६८६॥ अन्ने उ पढमगं चिअ चरित्तमोहक्खओवसमहीणा। पवइआ ण लहंती पच्छावि चरित्तपरिणामं ॥१६८७॥
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