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श्रीपञ्चव. ३गणाणुण्णा
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लग्गादिसुत्तरते तो पडिवजित्तु खित्तबाहि ठिआ। गिण्हंति जं अगहिअंतत्थ य गंतूण आयरिओ॥१५४३॥ यथालन्दतेसिं तयं पयच्छइ खित्तं एन्ताण तेसिसे दोसा । वन्दतमबंदंते लोगम्मी होइ परिवाओ ॥ १५४४॥
कल्पः ण तरिज जई गंतुं आयरिओ ताहे एइ सो चेव । अंतरपल्लीपडिवसभगामबहि अण्णवसही वा ॥१५४५ ॥ तीए अ अपरिभोए ते बंदंतीण वंदई सो उ । तं चित्तुमपडिबंधा ताएँ जहिच्छाएँ विहरंति ॥ १५४६॥
जिणकप्पिआ व तहिअंकिंचि तिगिच्छं तु ते उ न करिति ।
जिप्पडिकम्मलरीरा अवि अच्छिमलंपि णऽवणिति ॥ १५४७॥ धेराणं णाणत्तं अतरंते अपिणंति गच्छरस । तेऽवि अ सिफासुएणं करिति सच तु परिकम्मं ॥१५४८॥ एकिकपडिग्गहगा सप्पाउरणा हवंति थेरा उ । जे पुगऽभी जिणकप्पे भय तसिं बत्थपायाई ।। १५४९ ॥
गणमाणो जहण्णा तिणि गणा सयग्गसो अउकोसा।
पुरिसपमाणं पण्णरस सहस्ससो चेच उक्कोसो ॥ १५५० ॥ पडिवजमाणगा वा एकादि हविज ऊणपक्खेवे । होति जहण्णा एए सयग्गसो चेव उक्कोसा ॥ १५५१॥ पुवपडिवनगाणवि उकोस जहण्णओ परीमाणं । कोडिपुहत्तं भणि होइ अहालंदिआणं तु ॥ १५५२॥ कयमित्थ पसंगेणं एसो अन्भुजओ इह विहारो। संलेहणासमो खलु सुविसुद्धो होइ णायबो ॥ १५५३ ॥|| पाएण चरमकाले जमेस भणिओ सयाणमणवजो। भयणाए अण्णया पुण गुरुकज्जाइहिं पडिबद्धा ॥१५५४॥
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