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श्रीपञ्चव. १ प्रव्रज्या
सूत्रे
पुण्यवतां दीक्षा
॥२४८॥
CSCRECEBOOK
परिसुद्धं पुण एअंभवविडविनिबंधणेसु विसएसुं। जायइ विरागहेऊ धम्मज्झाणस्स य निमित्तं ॥ १९४॥ जंविसयविरत्ताणं सुक्खं सज्झाणभाविअमईणं तं मुणइ मुणिवरो चिअ अणुहवउ न उण अन्नोऽवि ॥१९५॥ कंखिजइ जो अत्थो संपत्तीए न तं सुहं तस्स । इच्छाविणिवित्तीए जं खलु बुद्धप्पवाओऽअं॥१९६॥ मुत्तीए वभिचारो तं णो जं सा जिणेहिं पन्नत्ता । इच्छाविणिवित्तीए चेव फलं पगरिसं पत्तं ॥ १९७॥ जस्सिच्छाए जायइ संपत्ती तं पडुचिमं भणि। मुत्ती पुण तदभावे जमणिच्छा केवली भणिया॥१९८॥ पढमंपि जा इहेच्छा सावि पसत्यत्ति नो पडिकुटा । सा चेव तहा हेऊ जायइ जमणिच्छभावस्स ॥१९९॥ भणिअंच परममुणिहिं (महासमणो) मासाइदुवालसप्परीआए। वय (ण)मायणुत्तराणं विइवयई तेअलेसंति तेण परं से सुक्क सुक्कभिजाई तहा य होऊणं । पच्छा सिज्झइ भयवं पावइ सव्वुत्तमं ठाणं ॥ २०१॥ लेसाय सुप्पसत्था जायइ सुहियस्स चेव सिद्धमिणं। इअ सुहनिबंधणं चिअपावं कह पंडिओभणइ?॥२०२॥ तम्हा निरभिस्संगा धम्मज्झाणंमि मुणिअतत्ताणं । तह कम्मक्खयहे विअणा पुन्नाउ निद्दिहा ॥ २०३ ॥ न य एसा संजायइ अगारवासंमि अपरिचत्तंमि । नाभिस्संगेण विणा जम्हा परिपालणं तस्स ॥ २०४ ॥ आरंभपरिग्गहओ दोसा न य धम्मसाहणे ते उ । तुच्छत्ता पडिबंधा देहाहाराइतुल्लं तु ॥ २०५ ॥ तम्हा अगारवासं पुन्नाओं परिचयंति धीमंता । सीओदगाइभोग विवागकडुअंति न करिति ॥ २०६॥ केइ अविजागहिआ हिंसाईहिं सुहं पसाहति । नो अन्ने ण य एए पडुच्च जुत्ता अपुव (पण)त्ति ॥ २०७॥
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॥२४८॥
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