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________________ Sak ११९० स्तवपरि ॥१७५॥ श्रीपञ्चव. इअरम्भि कसाईआ विसिट्टलेसा तहेगसारत्तं । भावसाधुअनुयोगा लक्षणं गा. अवगारिणि अणुकंपा वसणे अइनिञ्चलं चित्तं ॥ ११९७ ॥ ज्ञायां । तं कसिणगुणोवेअंहोइ सुवण्णं न सेसयं जुत्ती। णवि णामरूवमित्तेण एवं अगुणो हवइ साहू ॥११९८॥ 6] १२०४ जुत्तीसुवण्णयं पुण सुवगवण्णं तु जइवि कीरित्ता (जा)। ___णहु होइ तं सुवण्णं सेसेहिं गुणेहिऽसंतेहिं ॥ ११९९ ॥ जे इह सुत्ते भणिआ साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू। वण्णेणं जच्चसुवण्णयं व संते गुणणिहिम्मि॥१२००॥2 जो साहू गुणरहिओ भिक्ख हिंडइ ण होइ सो साह।वण्णेणं जुत्तिसुवण्णयं वसंते गुणणिहिम्मि ॥१२०१॥ || द उदिट्टकडं भुंजइ छक्कायपमद्दणो घरं कुणइ। पञ्चक्खं चजलगए जो पिअइ कहण्णु सो साहू ?॥१२०२॥18 अण्णे उ कसाईआकिर एए एत्थ होइ णायवा । एआहिँ परिक्खाहिं साहुपरिक्खेह कायदा ॥ १२०३ ॥ ॥१७५॥ तम्हा जे इह सत्थे साहुगुणा तेहिं होइ सो साहू । अञ्चंतसुपरिसुद्धेहिँ मोक्खसिद्धित्ति काऊणं ॥१२०४॥ BI अत एव-अस्य दुरनुचरत्वात् कारणात् निर्दिष्टः' कथितः 'पूर्वाचार्यैः' भद्रबाहुप्रभृतिभिः 'भावसाधु'रिति परमार्थि कयतिरित्यर्थः, हन्दीति पूर्ववत् 'प्रमाणस्थितार्थ' इति प्रमाणेनैव, नान्यथा, तच्च प्रमाणं साधुव्यवस्थापकमिदं भवति C www.jainelibrary.org For Private & Personal use only Jain Education Intel
SR No.600005
Book TitlePanchvastukgranth
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
Author
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1927
Total Pages634
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript, Ritual_text, & Conduct
File Size12 MB
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