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________________ तथागत का धर्मराज्य श्री अनन्त भगवान् बुद्ध में दस बल थे, उन्हीं दसबलों के कारण वे 'दशवल' कहलाते थे और उन्हीं दशबलों से वे 'म चक्र' का प्रर्वन भी करते थे, जो चक्र अन्य किसी भी श्रमण, ब्राह्मण, देव, मार, मला वा लोक के किसी भी ब्रह्मा व्यक्ति द्वारा प्रवर्तित नहीं हो सकता था। वह ब्रह्मचक्र किसी भी प्रकार से पलटने वाला नहीं था । उस ब्रह्मचक्र के प्रभाव में मनुष्य, देवता, मार और ब्रह्मा सभी थे । तथागत उस धर्मराज्य के अनुपम धर्मराजा थे। 'ब्रह्म as', 'धर्मचक्र' का ही पर्यायवाची शब्द है जो बुद्ध शासनका अपना पारिभाषिक शब्द है । धर्मराज तथागत ने ऐसे अनुपम धर्मचक्र को प्रवर्तित करने से पूर्व एक धर्मनगर की स्थापना की थी। उस धर्मनगर के प्राकार 'सोल' (सदाचार) के बने थे। उसके चारों ओर ही (जा) की खाई खुदी थी ज्ञान उसके फाटक पर चौकसी करता था। उस धर्मनगर में उद्योग की अटारियाँ बनी थीं। श्रदा की नींव बनी थी और स्मृति द्वारपाल का काम करती थी। प्रज्ञा के बड़े बड़े भवन बने थे । उसमें धर्मोपदेश के सूत्रों के सुन्दर सुन्दर उद्यान लगे थे। उस धर्मनगर में धर्म की ही चौक बसी थी । विनय की कचहरी लगी थी। उसकी सड़कें स्मृति प्रस्थान की थीं, जिनके किनारे किनारे नाना प्रकार की सुगन्धियों की दूकानें सजी थीं। वे सुगन्धियों दिव्य और अनुपम थीं। साधारण और लौकिक सुगन्धियाँ केवल सीधी हवा की ओर ही बहा करती हैं, किन्तु वे उल्टी, सल्टी, नीचे, ऊपर सर्वत्र अपनी गमगमाहट से सबको अपनी ओर आकर्षित किया करती थीं। लोग उन्हें सँघकर फिर राग, द्वेष, मोह की ओर नहीं लौटते थे। जो उस धर्मनगर में प्रवेश कर जाते थे, वे उस नगर के अमूल्य रत्नों को अपना कर वहीं के नागरिक बन जाते थे, उन्हें कामवासनामय जंगत् से उदासीनता हो आती थी। वे उन्हें नैष्क्रम्य के पुजारी हो परम शांति की ओर अग्रसर होने लगते थे और अपकाल में ही उन्हें ऐसा ज्ञान हो भाता था "जन्मक्षीण हो गया, मह्मचर्यवास पूरा हो गया, जो कुछ करना था, सो कर लिया और कुछ यहाँ करने के लिये शेष नहीं रहा ।" वे तथागत के पास जाते और प्रसन्नतापूर्वक अपने उदानों ( प्रीति वाक्यों को सुनाते थे - "किलेसा झापिता मरहं, कतं बुद्धस्स सासनं" मेरे सारे क्लेश, ( राग, द्वेष, मोह ) जला डाले गये, मैंने बुद्ध शासन को पूर्ण कर लिया । तथागत ने अपने धर्मराज्य की स्थापना सर्वप्रथम आषाढ़ पूर्णिमा को ऋषिपतन गदाय (सारनाथ) में की थी और धर्मचक्र को प्रवर्तित कर वहीं अपने धर्मनगर का उद्घाटन भी । जिस प्रकार साधारण और लौकिक 1 शासक वेत छत्र, राजमुकुट, जूते चैवर, तलवार, बहुमूल्य पलङ्ग इत्यादि राज्य भाण्डों का उपयोग करते हैं, उसी प्रकार उन अनुपम धर्मराज ने चार स्मृतिप्रस्थान, चार सम्यक प्रधान, चार ऋद्धिपाद, पाँच इन्द्रियाँ पाँच बल, बल, साव बोध्य और आर्य अष्टाङ्गिग मार्ग को अपने काम में लाया । धर्मराज तथागत ने अपने धर्मराज्य के नागरिकों को सदा कर्मवादी, किपाबादी, वीर्यवादी बनाया। उन्होंने अक्रियावाद को केशकम्बल जैसा घृणित कहा। अनुशासन करते हुये सदा ही उन्होंने भिक्षुओं को कहा - "भिक्षुओ ! श्रद्धालु श्रावक के लिये शास्ता के शासन में परियोग के लिये वर्तते समय शास्ता का शासन ओजवान होता है। भिक्षुओ! तुममें ऐसी चढ़ता होनी चाहिये - चाहे चमड़ा, नस और हड्डी ही बच रहे, शरीर का रक्त-मांस सूख क्यों न जाय, किन्तु पुरुष के स्थाम एवं पराक्रम से जो कुछ प्राप्य है, उसे बिना पाये मेरा उद्योग न रुकेगा ।"
SR No.545672
Book TitleDharmdoot 1950 Varsh 15 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmrakshit Bhikshu Tripitakacharya
PublisherDharmalok Mahabodhi Sabha
Publication Year1950
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Dharmdoot, & India
File Size10 MB
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