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________________ * अहिंसा-वाणी* . लक्ष्मी-आदि भी मिलते हैं। मध्य- संग्रह एवं प्रकाशन अभी तक नहीं कालीन कुछ जिन प्रतिमाओं में प्रभा- हो सका। मंडल तथा छत्र अत्यंत सुन्दरता के भारत में जैन कला के केन्द्रों की साथ उत्कीर्ण -िले हैं। मध्यकालीन संख्या बहुत बड़ी है । उतर भारत में सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ भी बड़ी संख्या तो ऐसे प्राचीन स्थान बहुत कम में प्राप्त हुई है। कुषाण एवं गुप्तका- मिलेंगे जहां जैन कला के अवशेष न लीन मूर्तियों की तरह मध्यकाल में मिलते हों। मुझे उत्तर भारत के भी अभिलिखित तीर्थङ्कर मूर्तियां बड़ी अनेक प्राचीन स्थानों को देखने का संख्या में मिली है। इन अभिलेखों अवसर प्राप्त हुआ है, और प्रायः के द्वारा तत्कालीन धार्मिक स्थिति सर्वत्र जैन कला को कुछ न कुछ पर बहुत-कुछ प्रकाश पड़ता है। सब कुछ सामाग्रो पड़ी मिलती है। मध्यकाल के बाद मुस्लिम शासन हाल में बिजनौर जिले के 'पारसनाथ में भारतीय कला का जो ह्रास हुआ किला' नामक स्थान में मुझे यह उससे जैन कला भी अछूती न रह देखकर आश्चर्य हुआ कि कई मील सकी। उत्तर भारत के उपयुक्त प्रायः विस्तृत इस अरण्य प्रदेश में जैन सभी कलाकेन्द्र बरबाद हो गए और कला कृतियां बड़ी संख्या में बिखरी कला का जो प्रवाह शताब्दियों से पड़ी हैं। बुंदेलखंड तथा राजस्थान चला आ रहा था वह अवरुद्ध हो के कितने ही इलाकों में सैकड़ों जैन गया। यद्यपि पश्चिम तथा दक्षिण मूर्तियां पड़ो मिलेंगी। अब आवश्यभारत में इस काल में भी स्थापत्य कता इस बात की है कि देश के एवं मूर्तिकला जीवित रह सकी, परंतु विभिन्न भागों में बिखरी हुई इस उसमें वह सजीवता तथा स्वाभा- विशाल सामाग्री को शीघ्र सुरक्षित विकता न रही जिसके दर्शन हमें किया जाय, अन्यथा इनमें से बहुत प्रारम्भिक युगों में मिलते हैं । पाषण, से अमूल्य अवशेष नष्ट हो जावेंगे। एवं धातु की बहुत सी जैन मूर्तियां जैन कला की कितनी ही सामाग्री तेहरवीं शती से लेकर अठारवीं शती अभी जमीन के नीचे दबी पड़ी है। तक की मिली हैं, जिनमें से अनेक अभी तक हमारे यहाँ उत्खनन का अभिलिखित भी हैं। इन लेखों में कार्य बहुत कम हो सका है और प्रायः विक्रम संवत् मिलता है तथा उनमें भी जैन धर्म एवं कला से संबंदाताओं के नाम, उनके गोत्र, कुल धित स्थानों पर खुदाई का काम तो प्रवर आदि भी मिलते हैं। इन लेखों नाम मात्र को ही हुआ है । अब यह में कुछ तो प्रकाशित हो चुके हैं, पर बहुत जरूरी है कि मुख्य स्थानों पर ऐसे बहुत से अभिलेख पड़े हैं जिनका [शेष भाग ३५वें पृष्ठ पर
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
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