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________________ * अहिंसा-वाणी * कांश कुटुंबिनी श्राविकाओं द्वारा मित्रा, कौशिकी, गृहरक्षिता, गृहश्री, ही बनवाई गई हैं। ये कलाकृतियाँ जया, जिनदासी, जीवनन्दा दत्ता, हमारी मूल्यवान निधि हैं और जब धर्मघोषा, धर्मसोभा, बलहस्तिनी, तक विद्यमान रहेंगी तब तक उन मित्रा, यशा, विजयश्री, शिवमित्रा, उदारचेता महिलाओं की मधुर स्मृति शिवयशा; सोना आदि । जिन उपजागृत किए रहेंगी जिन्होंने इहलोक देशिका भिक्षुणी आर्याओं की प्रेरणा और परलोक में कल्याण का विस्तार से कटुम्बिनी स्त्रियों ने धर्म और कला करने के हेतु धार्मिक कृत्यों को के प्रसार में भाग लिया उनके नाम निस्स्वार्थ रूप से अपनाया । मूर्तियों अभिलेखों में सादिता, वसुला, जिन- । का निर्माण कराने वाली स्त्रियों के दासी, श्यामा, धार्थी; दत्ता, धान्यलेखों में उनके परिवार वालों के श्रिया आदि मिले हैं। नाम, गुण, कुल तथा शाखा के . गुप्तकाल के बाद भी जैन कला सहित दिए हुए हैं। ये दानदात्रियों का प्रसार उत्तर भारत के अनेक ने केवल उच्च परिवारों की थीं स्थानों में जारी रहा । मथुरा के बल्कि सभी वर्ग इनमें सम्मिलित कंकाली टीले से ग्यारहवीं शती के थे । बणिक, कारूक, गन्धि, मणिकार, अन्त तक की तीर्थङ्कर मूर्तियाँ प्राप्त लोहिकार आदि विभिन्न वर्गों की हुई हैं। अन्तिम मूर्ति पर विक्रम गृहणियों ने सर्वसत्वों के हितसुख के सम्वत् ११३४ (१०७७ ई०) का लेख लिए दान देकर अपने नाम अमर है। इसके पहले की एक मूर्ति पर किए । इतना ही नहीं, नर्तकों तथा सम्बत् १०८० (१०२३ ई०) लिखा है। गणिकाओं ने भी पूरी स्वतंत्रा के इससे पता चलता है कि १०१८ ई० साथ विविध धर्मकार्यों में भाग . में महमूद गजनवी के मथुरा पर लिया। मथुरा के एक अत्यन्त संदर दुर्दान्त आक्रमण के बाद भी प्रायः आयागपट्ट का निर्माण वसु नामक ६० वर्षों तक बौद्ध स्तूप की पावन गणिका की पुत्री लवणशाभिका भूमि पर जैनकला विकसित होती द्वारा कराया गया । इसी प्रकार रही। फल्गुयश नामक नर्तक की भार्या मथुरा के अतिरिक्त उत्तर भारत शिवयशा ने एक दूसरे आयागपट्ट में अन्य अनेक केन्द्र थे, जिनमें की रचना करवाई। उत्तर गुप्तकाल तथा मध्यकाल में मथुरा के अभिलेखों में इन दान- जैन कला का विस्तार होता रहा। दात्री स्त्रियों के नाम बड़ी संख्या वर्तमान विहार तथा उत्तर प्रदेश में में मिलते हैं । इनमें से कुछ नाम ये अनेक स्थान तीर्थङ्करों के जन्म, हैं :-अमोहिनी, अचला, कुमार- तपश्चयी तथा निर्वाण के स्थान रहे
SR No.543515
Book TitleAhimsa Vani 1952 06 07 Varsh 02 Ank 03 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mission Aliganj
Publication Year1952
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Ahimsa Vani, & India
File Size30 MB
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