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एक संध्या ( श्री सुरेश चन्द्र अग्निहोत्री, साहित्यरत्न) छोड कर निज तेज की महिमा चला रवि,..
ताप जिससे था तपाया इस जगत को,
और शोषण था किया निरुपाय- जल का, हो गया अब दूर उससे ।
और शोकातुर बना निज गमन से प्राची दिशा को,
चल दिया वह दूसरी दुनिया बसाने के लिए। पेट के मारे, श्रमिक जो व्यस्त बेचारे रहे दिन भर, . - चले ले साथ पूँजी जो पसीने . की कमाई -
जो रुधिर को शुष्क कर दिन भर उन्होंने है कमाई। और जिसके ही सहारे चल रही है एक दुनियाआठ-दस प्राणी न जिनका पेट पूरा भर सकेगा, चार-ग्रासों की प्रतीक्षा में बिताया दिन जिन्होंने । किन्त वे संतोष का हैं छोड़ते फिर भी न आश्रय । नित्य ही हैं खोदकर पानी सदा ये प्राप्त करते।
जान पाये हैं न ये आनन्द दुनियाबी नये नित। मस्त पंछी लौटते हैं जो श्रमिक की भाँति दिन भर
अन्न-चिन्ता से रहे व्यावृत्त हैं, पर हैं नहीं जो, चूर उतने कठिन-श्रम से, क्लान्त हैं बिल्कुल नहीं वे । और जिनको हैं न चिन्ता लेश कल क्या शेष करना। मुक्त नभ में हैं विचरते, गान गाते हैं अमर जो।
और जिनकी भांवना की उच्चता है पूर्ण अनुपम । मधुरतम संगीत का आवास जिनका कलित स्वर है।
और जिनका रात्रि का विश्रामस्थल सुरभित-सुतरुवर। कुछ सुमन मुरझा रहे हैं और कुछ अति उल्लसित हैं,
लिए इच्छा हृदय में खिल देखने की इस जगत को। हँस रहे हैं सुमन-सूखे देख उनका मुस्कराना जान यह उल्लास ऐसा रह न सकता है सदा ही,