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अहिंसा-वाणी.
निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैनाचार्य श्री सूर्य सागर जी महाराज (आपका दिनाङ्क १५ जुलाई ५२ को रात्रि में १२।। बजे सोम नदी
के तट पर स्वर्गवास हुआ) त्याग-तपस्या के अम्बर में, सूर्य प्रभामय जो चमका था। सागर में प्रतिविम्ब कि जिसका, अनुपम कीति रूप दमका था। वर्षों जिसने तपादश का. स्वर्णिम किरा-जाल फैलाया। जैन-धर्म-निवृत्ति-माग पर, जिसने निश्चय कदम बढ़ाया ॥ किन्तु चला पन्द्रह जोलाई, सन्ध्या में समाधि यह लेने। सोम सरित् के सौम्य कूल से, अस्ताचल-दिशि में पग धरने । यद्यपि अन्तिम सूर्य-विमा यह, द्विगणित छटा बिखेर रही थी। किन्तु भक्त-सन्ध्या मुरझाई, सूने आँसू गेर रही थी। सोम सौख्य-सगीत नहीं वह, आज 'मर्सिया' सुना रही थी। युग-युग की पीड़ा को मानो, रोक न पाई बहा रही थी। क्योंकि सूर्य अब अस्त हो चला, निज जीवन अस्तित्व खो चला। दुर्दिन-मध्य-दिशा में जीवन, स्वगोरोहरण आज कर चला। वातावरण भासता दुखमय, किन्तु शाम को सूर्य शान्त था। वह गम्भीर सुसस्मित जैसे, मृत्यु-महोत्सव मना रहा था। हुआ सूर्य यदि इधर अस्त तो, जागेगा नव जन्म-प्रात में । क्या इस आशा से तारावलि, मुस्काने-सी लगी रात में?-वीरेन्द्र