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________________ ॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥ * दिगंबर जैन. THE DIGAMBAR JAIN. नाना कलाभिर्विविधश्च तत्त्वैः सत्योपदेशैस्सुगवेषणाभिः । संबोधयत्पत्रमिदं प्रवर्त्तताम्, दैगम्बर जैन-समाज-मात्रम् ॥ • वर्ष १७ वॉ. || वीर संवत् २४५०. भाद्रपद वि० सं० १९८०. || अंक ११ वां -80 दशलक्षणधर्म। पितासम सर्व जीवोंकी, करे रक्षा धरम कहते । इसीसे आसरा लीजे, इसी शुभ धर्मको कहते ॥ सभी कहते धरम करिए, धरम करना नहीं जाने । कि जैसे शुद्ध, जल मिश्रित, दुई लग दूध कहलाने ॥ परंतु पीयकर अनुभव, करेंगे आप जब उनका । तभी तो जान जावेंगे, कि जिससे होयगा खटका ॥ इसी ही दूध सम है तो, धरम सांचा अरू झूठा । तभी तो जानकर करना, कि जिससे कोई ना रूठा॥ इसीसे आज हम सबको, बताते इम धरम दशको । कि जिससे होत है भारी, · हमारी उन्नती प्यारी॥ प्रथम क्षमा, मार्दव, आर्जव, .उर सत्य शौचका करो बिचार । संयम तप अरु त्याग अकिञ्चन, ब्रह्मचार जानों सुखकार ॥ १-उत्तम क्षमा। . कोई क्रुद्ध होकरके भाई, अपना जो अपकार करे । शांतभावसे उसको सहलो, तभी क्षमावत धर्म धरे ॥ मैत्रीभाव जगतमें होगा, जिसके कारण सबसे अत्र । अन्तर बाहर शत्रु न कोई, सभी करें व्यवहार पवित्र ॥ २.-उत्तम मार्दव । मान कषायको दूर भगाकर मृदुता धारण कर लीजे । जिससे फैले बेल दयाको चितमें मार्दव धर लीजे ॥
SR No.543201
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size8 MB
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