SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २.] दिगम्बर जैन। [ वर्ष १७ ताकना न पड़े। उनमें दास दासियोंपर प्रभुता सन् १९९१ में ग्यारह लाख अठहत्तर हजार है। करनेकी शक्ति भी हो तब ही वे गृह-स्वामिनी इस भांति तीस वर्ष में जैनियों की संख्या दोलाख कहला सकती हैं । बालक बालिकाओं का योग्य चालीस हनार घट गई जब कि भारतवर्षकी होना मुख्यतया माताओंपर अवलंबित है । उनको जनसंख्या तीस वर्ष में सत्ताईश करोड़से बढ़कर धर्ममें श्रद्धान कराना सदाचारी बनाना आदिकी बत्तस होगई । यह प्रश्न केवल विकट और चिंता कुंत्री माताओंके हाथ हीमें है । आपको मनुष्य जनक ही नहीं किंतु समान के जीवन मरणका गणनाकी रिपोर्ट देखकर ही सन्तुष्ट होना न प्रश्न है । यदि शीघ्र ही इस घटतीके रोकनेका चाहिये, कि हमारी जातिका स्त्रीशिक्षामें दूसरा कोई योग्य उपाय न किया जावेगा तो लगभग नम्बर है । मनुष्यगणनामें वे स्त्रियां भी शिक्षिता डेढ़ सौ वर्ष में जैन नातिका नामोनिशान इस गिन ली जाती हैं कि जिनको केवल नाम मात्र ही भारत भूमिपर न रहेगा-कोई भी मरहंत लिखना भाता है। इस उदेश्यकी पूर्ति वर्तमानमें भगवान द्वारा प्रतिपादित इप्त सर्वोत्कृष्ट धर्मको निम्न उपायोंसे हो सकती है। पालन करने वाला हूंहनेपर भी न मिलेगा। (क) स्थान पर कन्यापाठशाला स्थापित की महानुभावों ! हमारी जातिकी संख्या घटनेके मा। बहुतसे कारण हैं जिनमें से कुछ कारण बाझवि . (ख) स्त्रियोपयोगी पुस्तकें बनाई जावें। वाह भादिकी विवेचना मैं मागे करूंगा। (ग) प्रायः प्रत्येक ग्राम और नगरमें एक दो मनुष्यगणनाको देख नेते पता चलता है कि स्त्रीशिक्षिता पाई जाती हैं । उनको इस बातके हमारी जातिमें पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियां कम हैं। लिये तैयार किया जावे कि वे गृहस्थ स्त्रियों को इसका फल यह है कि पुरुष संख्य का पांचवां सुबह या शाम कमसेकम एक घन्टा शिक्षा दें, भाग अविवाहित रहकर अपने दिन काटता है, जैनियों के लिये यह बडी सुविधाकी बात है कि उनकी संतान और वंश चलाने का कोई मार्ग भवउनकी स्त्रियां प्रायः श्री मंदिरजीमें प्रतिदिन शेष नहीं है । प्रश्न उपस्थित होता है कि पुरुदर्शनार्थ जाती हैं और इस कार्यके लिये जैन षोंकी अपेक्षा स्त्रियां कम क्यों हैं ? मैं बहुत मंदिर सबसे उचित स्थान हो सकता है। विचार करनेपर भी स्त्रियों की कमीके कारणोंको ८-अाजकल समानके सामने जैन जातिके पूर्णरूपसे निश्चय नहीं कर सका, किन्तु बहुतसे हासकी कठिन समस्या उपस्थित है। सभी इस कारणों में से एक कारण यह भी है कि कन्याओंका विषयमें चिन्तित हैं। सन १८९१में समस्त जैन पालन पोषण लड़कों की भांति नहीं होता। संख्या चौदहलाख सोलहहमार छइसौ अड़तीस जन्मसे ही उनको बोझ स्वरूप मान लिया जाता थी। सन् १९०१में तेरह लाख चौतीस हनार है और उनके जीवन का कुछ मूल्य नहीं समझा एकसो अड़तालीस रई गई। सन् १९११ में जाता। यह भी विचार किया जाता है कि बारह लाख भड़तीस हमार होगई। और अब कड़कियां पराया धन है। दूसरे घर चली
SR No.543196
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy