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॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
दिगंबर जैन.
THE DIGAMBAR JAIN. नाना कलाभिर्विविश्व तत्त्वैः सत्योपदेशैस्सुगवेषणाभिः । संबोधयत्पत्रमिदं प्रवर्त्तताम्, दैगम्बरं जैन समाज - मात्रम् ॥
वर्ष १६ वाँ.
वीर संवत् २४४९. श्रावण वि० सं० १९७९.
अंक १० वाँ.
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व तीर्थरक्षा के प्राण रूप थे । यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि आपकी धमक्रिया एक त्यागीं से भी बढ़कर थी अर्थात् दिनके १२ घंटोंमें करीब ६–१ घंटे तो धर्म ध्यान, पूजा पाठ, स्वाध्याय आदि में बिताते थे व तीर्थरक्षा के लिये आपने तन मन व धनका कितना समर्पण किया था वह सारे जैनसमाजसे विदित है । हम तो यही कहते हैं कि पूज्य तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी आदि सभी तीर्थ जहां२ हमारे श्वे० बन्धुओं द्वारा झगड़ा चल रहे हैं उनमें दि० जैन समाजकी तरफ से प्रथम रेवडे रहनेवाले छागुए आप ही थे व कोर्ट में केसों में आपका ही प्रथम नाम चल रहा है। शिखर जी की रक्षाके लिये कई बार आपने पचास १० हजार रु का दान कर दिया था व जब चाहें रुपयों की भी मदद देते रहते थे । आपका स्वभाव भी सीधासाधा व हसमुखा था व आपका प्रभाव सरकारी आफिसरों पर बहुत पड़ता था ।
जैसे स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकचंदजी सारे जैन समाजमें दानी व ला• जम्बू प्रसाद तीर्थभक्त प्रसिद्ध होगये जीका वियोग । उसी प्रकार सहारनपुर निवासी बड़े जमींदार, श्रीमान्, धर्मात्मा, दानी, कोट्याधीश व तीर्थभक्त लाला जम्बुप्रसादजी रईसका नाम भी सारे जैनरुमःजमें बच्चा २ जानता है । आपमें धर्मभक्ति व तीर्थभक्त कूट भरी थी व एक कोट्याधीश होनेपर भी आप रातदिन धर्मक्रिया तथा तीर्थरक्षा के कार्यों में तल्लीन रहते थे परन्तु यह कौन जानता था कि आप केवल ४३ वर्षकी आयु में अकस्मात् ही जैन समाज से चल बसेंगे ? आप दोएक मापसे कुछ बीमार थे और उसका दुखद परिणाम यही आया कि आप श्रावण वदी १३ ता० १० ८ - २३को इस असार संसारसे में ही सदके लिये चल बसे जिसका सारे दि० जैन समाजको अपार दुःख होरहा है । लालाजी धर्मके
विद्यादान में भी आप कम न थे । आपने वर्षोंतक महाविद्यालय मथुराका कुल अपनी जे से दिया था । हम समहैं आपका वियोग जैन समाज में इतना असह्य हुआ है कि जिसकी पूर्ति होना
कई
घटा
झते