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________________ P दिगंबर जैन, स अंक १] चंद्रगिरि एक बहुतही रमणीय पर्वत है । इसपर चढ़नेमें कुछ भी कठिनाई नहीं होती । भारतीय आदर्शभूत शिल्पकलासे रचित अनेक जैन मंदिर, विकसितकमल - सुशोभित सुन्दर सरोवर तथा अध्यात्मिकचिंतनोपयुक्त सुरम्य स्थान इसकी विशेष रमणीयताको परिवर्द्धित कर रहे हैं। इसका सृष्टिसौंदर्य दर्शकों के चित्तको बलात् आकर्षित करने लग जाता है । इसके गगनचुम्बित शिखर की छटातो देखते ही बनती है । 1 दक्षिणद्वारसे ढाई सौ सीढ़ी चढ़कर दो राहें मिलती हैं, एक तो भद्रबाहुकी गुफा की ओर जाती है और दुसरी प्राकारकी ओर जाती है । वहां पर निम्र लिखित मंदिर है । भद्रबाहुकी गुफा पश्चिमाभिमुखी है । उसमें घुसनेपर पूरबकी ओर भद्रबाहुस्वामीकी दो विशाल चरण पादुका मिलती है । गुफा बहुतही एकान्त स्थानमें है। योगियोंके अध्यात्म विचार के लिये यह गुफा बहुतही उपयुक्त है । इसमें प्रविष्ट होते के साथ श्री भद्रबाहुस्वामीकी तपस्या, चन्द्रगुप्तका संघ छोडके श्री १०८ गुरु श्री भद्रबाहुजी के साथ रहना, प्राचीनकालकी पुराणकारोंसे वर्णित हुई कर्नाटक की सुभिक्षता, आध्यात्मविचार और जैनियोंकी प्राचीन धार्मिक उन्नतिका चित्र दर्शकोंके चित्तपर सहसा खिंच जाता है । इसी गुफा में श्री १०८ भद्रबाहुस्वामीने मुनि-संघों को चोल पांड्य देशमें भेजकर ७३ आप कठिन तपस्याकर समाधि - मरणसहित इस असार संसारको छोड़ा और यहीं पर अपने गुरु भद्रबाहुस्वामीके मुक्त होनेपर चन्द्रगुप्त मुनिने जैन धर्म की चिरस्थायी नीव डालकर जैन महत्वका प्राचीनता - सूचक एक प्राकाम्य प्रशस्त प्रासाद बनाया । भाइयों ! यह ऐसा स्थान है कि, यहां के दृश्य देखने पर यही मालूम होता है कि, आज भी वही जैनधर्मका विस्तृत क्षेत्र है, स्याद्वाददेवीकी वही शुद्ध धर्मोपदेशकी ध्वनि गूंज रही है तथा 'अहिंसा परमो धर्मः' की भी वही शुभ्रवैजयंती फहरा रही है। ठीक है अपनी सम्पत्ति, अपनी ज़मी - न्दारी तथा अपने धर्मकी सुरक्षित मूलभित्ति देखकर भला कौन नहीं प्रसन्न होगा ? प्रिय पाठको ! अन्तिम श्रुतकेवली श्री १०८ भद्रबाहुस्वामी और उनके शिष्य मुनि चंद्रगुप्तके संन्यस्त मरणके स्थानको देख कर स्वधर्माभिमान उत्तेजित होकर प्रज्वलित हो आता है और ऐतिहासिकघटना के परिचय होनेसे एक क्षण भी वहांसे हटनेका जी नहीं चहता । अस्तु ! उल्लिखित गुफा के चारों तरफ कई बड़ी बड़ी शिलाएं हैं । इनपर अनेक जैनमुनि - योंने संन्यस्त-मरण किया है । इस बात शाक्षिता उन शिलाओंपरके अनेक चरणचिन्ह ही काफी है । इस गुफा के दर्शन करने के बाद दूसरी राहसे प्राकार [चहार दिवाली] की ओर
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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