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अंक १]
> दिगंबर जैन. ६ रतनचंद अपने कमरेमें चारपाई पड़े २ देख ! तेरा यह सत्यानाश कर देगी । तू, तरदुदृकी बातें सोच रहे हैं । तरह २ की जो तेरे पास धन है, विद्यादानादि तथा तरंगे उठ रही हैं। कुबुद्धी और सुबुद्धीका सुयोग्य कार्य में लगा दे, जिससे तेरा भला द्वंद मच रहा है।
हो और अगर तू अपनी लौकिक रीति । सूबुद्धी बोली-" अरे रनतचंद ! इस अनुसार अपने कुटुंबका नाम चलाना चाढलती उम्र में ब्याह ! करके क्या करेगा ? हता है तो कोई सुयोग्य लड़का गोद ले, इस जीव का ठिकाना नहीं, आज है कल जिससे तेरा नाम चले । और अपनी इस नहीं। एक पल भरका भी ठीक नहीं है। ढलती उम्रको तो धर्मध्यानादिमें ही अब तो तुझे इस ढलती उम्रको धर्मध्यान बिता, जिससे तेरा कल्याण होवै और यह में बिताना चाहिये ।"
लोक और परलोक दौनों सुधरें । मानले ___ कुबुद्धीने कहा-" नहीं जी ! मुझे तो अगर तैंने विवाह भी कर लिया। और ब्याह अवश्य ही करना चाहिए। चाहे कि- अब तू चलनेके करीब के नगाड़े पर है। तने ही रुपये क्यों न खर्च पड़ जाय ? आ- और तू चल बसा तो वह तो किसी न खिर मेरे पीछे रोनेवाली तो रह जायगी! किसी तरह अपना निर्वाह करैहीगी। धर्मध्यान तो होताही रहेगा, अभी थोड़े और अगर कुचलनी निकल गई तो तेरे ही मरे जाते हैं !"
जन्म जन्मान्तरको कलंक लग जायगा । सुबुद्धी बोली-" रतनचंद ! तू ऐसे इससे तेरा भला इसीमें है कि तू ऐसे ख्याल छोड दे । पापमें पैर मत पटक । ख्यालातों को छोड दे।" इससे बड़ा नुकसान पैदा होगा । कल तू कुबुद्धी बोली-“ नहीं जी ! जब मैं इस संसारसे उठ गया तो उस बेचारी उसे समझा दूंगा तो वह कुचलनी कैसे को तो सुख देनेवाला कोई न रहेगा। होगी ? उसके पास मेरा बहुतसा धन आखिर वह अपने कर्मों को ही फोड़ेगी” रहैगा, जिससे वह अपनी उम्र सुखसे
कुबुद्धीने कहा-"नहीं जी ! इन थोथी बिता सकेगी। बिना स्त्रीके मुझे कोई पूबातोंमें क्या रक्खा है ? मुझे तो विवाह छता भी तो नहीं है और न घर ही शोभा अवश्य ही करना चाहिए । क्या मालुम देता है । रातको अकेलेही पड़े रहो। कोई इस ढलती उम्रमें ही कोई सन्तानकी प्राप्ति दुःख सुखकी बात सुननेवाला नहीं है । हो जाय"।
इसलिये मुझे अवश्यही विवाह करना __ सुबुद्धी बोली-"अरे रतनचंद ! इस चाहिए और इसके लिये कोई लडकीकी फांसी ! को तू अपने गलेमें मत बांध । तलाश करवानी चाहिये । पर यह काम