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________________ R अंक १] दिगंबर जैन. १ **** ****** हाय ! उस समय निगोड़े दलालोंने भी * लोभी और फैय्याजी। तो इस काममें सहायता कर अनर्थ करवा डाला । हाय ! उस समय कोई बिरादरी* * ** वाला भी तो नहीं बोला। सच है वे बोलने (एक उपदेश पूर्ण आख्यायिका) भी क्यों लगे ? उनका तो पहले ही मीठा मुंह हो चुका था । प्यारी ! अब तुम्हारे [ लेखकः-गोपीलाल गोधा-लश्कर] लिये सिवाय भगवानकी शरण और कुछ नहीं है । अब कहां तक रोओगी, हा य! हाय !! इस लोभने दिन आखिर सर्व करना ही पड़ेगा। दहाड़े लूट लिया। प्यारी! प्रिय पाठको ! बेचारी दयामयी, चन्द्रतुम्हारी क्या दवा की कलाकी हालत पर शोक कर रही है। इस जाय ? हाय ! आग लगे समय चन्द्रकलाकी उम्र कोई ग्यारह वर्षकी इस घड़ीको तुम्हारा सर्व नाश कर दिया। होगी कि एकाएक बेचारी पर बनका हाय ! हाय !! तुम्हें किसी दीनका न पहाड़ टूट पड़ा । बेचारी इस समय अनारक्खा । हाय ! यह तो पहले ही सोची थ हा गई । जा चुकी थी जिस समय तुम्हारा व्याह हाय ! उसको धैर्य देनेवाला इस संसाहआ था। हाय ! हाय !! तुम्हारे बापने रमें नहीं रहा। आज इस संसारसे बड़ा अनर्थ कर डाला। उसका सर्व सुखका देनेवाला उठ सच है आदमी पर जिस समय लोभका गया । बेचारी अबला अनाथ हुई पड़ी है। भूत सवार होता है उस समय उसे किसी . दयामयी इसी चन्द्रकलाकी अवस्था पर शोक कर रही है। भी बातकी परवा नहीं रहती। अपने भले बरेका विचार नहीं रहता । यहां तक कि xxxxxx प्रिय पाठको ! इस समय आपका दिल अनर्थ करने पर भी उतारू हो जाता है। हिलोरे ले रहा होगा कि यह एकाएकी शोक हाय ! उस समय मैंने तेरे बापको कैसा ? चन्द्रकला कौन है ? दयामयी बहुत समझाया पर उन्होंने कुछ भी नहीं कौन है, जो चन्द्रकलाकी अवस्था पर सुनीं । सच है, सुनते कहांसे ? वे तो उस शोक कर रही है ? चन्द्रकला पर ऐसा समय लोभके इश्क पर सवार हो रहे थे। कौनसा बज्र आ पड़ा। प्रियवर ! आप उन्हें अपने भले बुरेकी सुध तो थी ही नहीं। घबड़ाईये नहीं । धीरे २ सब भेद खुल
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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