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अंक १ ]
'दिगंबर जैन. *
उस
पर लगा देते हैं, परंतु अनेकांत धर्म सिद्धांत को उस गुण वा पर्यायकी अपेक्षासे ही उस वस्तुपर लगाता है । एकांत अनेकांतमें भेद है ।
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दुसरा उदाहरण और लीजिए । अनुमान करो कि एक मनुष्यका नाम मोहन है और उसके बापका नाम राम है और उसके एक बेटा है, जिसका नाम सोहन है । अब यदि कोई यह प्रश्न करे कि मोहन पिता है या पुत्र, तो अनेकांत से उस का उत्तर यही होगा कि मोहन पिता भी है और पुत्र भी है । अपने पिता रामकी अपेक्षा वह पुत्र है और अपने पुत्र सोहन की अपेक्षा वह पिता है । एकांत पकड़कर उसको पिता ही कहना यां पुत्र ही कहना ठीक नहीं है | भिन्न भिन्न अपेक्षा से पिता पुत्र दोनों हैं । इस अपेक्षाही का नाम जैन धर्मकी परिभाषा में नय है । किसी नयसे कोई वस्तु कुछ है । किसी और नयसे वही वस्तु कुछ और है । इसी का नाम अनेकांत है ।
अब इस अनेकांत धर्मको धार्मिक सिद्धांतों में घटाइये । जैसे प्रश्न है कि परमात्मा और आत्मा एक है या दो हैं ? कई धर्मोंवाले आत्मा और परमात्माको एक मानते हैं और कई दो । परंतु जैन धर्मके अनुसार परमात्मा और आत्मा एक भी है और दो भी है । किसी नय विशेषसे
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एक हैं और किसी दूसरी नयसे दो हैं । यदि उनके वास्तविक स्वभाव वा स्वरुपको देखा जाए तो एक हैं अर्थात् शक्तिकी अपेक्षा एक है और उस स्वभावकी व्यक्तिकी अपेक्षा दो हैं । भावार्थ - जैन धर्मानुसार दोनों सिद्धांत भिन्न भिन्न नयसे ठीक हैं। और जो धर्म परमात्मा आत्माको एकही या दोही बतलाते हैं, यदि अनेकांत रीतिसे किसी अर्थ व अपेक्षा विशेषसे एक वा दो कहें तो उनका कहना ठीक है, झूठ नहीं है, परंतु यदि एकांतको लेकर सर्वथा एक वा दो कहें तो ठीक नहीं है ।
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दुसरा प्रश्न लीजिए कि द्रव्य एक है एकही द्रव्य मानते हैं । कुछ दो और कुछ या अनेक । कुछ मतवाले सम्पूर्ण जगत में दो से अधिक मानते हैं । परंतु जैन धर्मके अनुसार द्रव्य एक भी है, दो भी है, दो से अधिक भी हैं । जैन धर्ममें द्रव्यका लक्षण सत् बदलाया गया है, अतएव द्रव्य जहां तक उसके सत् धर्मका सम्बंध है, एक हैं. परंतु जब अन्य गुणोंकी अपेक्षा से देखा जाता है तो दो वा दोसे अधिक कह सकते है । जैसे जब ज्ञान वा चेतनाकी अपेक्षा बिचार किया जाता है तो द्रव्यके दो भेद हो जाते हैं- १ जीव, २ अजीव । फिर मूर्तीक व अमूर्तककी अपेक्षासे जीवके दो भेद हो जाते हैं । इसी प्रकार अन्य गुणोंकी अपेक्षा अधिक अधिक भेद हो जाते हैं ।
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