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________________ (१) करत्म। दोनों बाड़ों में तत्व की दृष्टि से देखा जाय को उसमें वर्ग मिस नहीं है। जो प्रजा सेवक संस्था को स्वीकार करती है और मानती है कि मनुष्य दूसरे मनुष्य की नौकरी करे उसी में उन्नति तो समझना चाहिए कि उस प्रमा के लोहू में निस्संदेह गुलामी है हम सब इस गुलाम अचि के दाम में श्रतएव नौकरी की सभ्यता, नम्रता, उदारता, स्वार्थपन और ऐसे २ सुन्दर नाम देकर अपनी निर्बला बताते हैं। सच्ची बात तो यह है कि जिसकी सेवा की जाती है उसकी स्वाधीनता घटती है उसकी शक्ति मर्यादित होती है। मेरी संवा को भारत नहीं है कारण कि मैं निवार्य नहीं हूँ और यही विचार भविष्य के मनुष्य को विद्यमानता का प्राधार स्तम्भ होगा। मनुष्य को प्रात्मा का स्वराज्य मिलने के पहले उसने इस विचार को सिद्ध किया होगा। सिर्फ स्वाधीन मनुष्य ही स्वराज्य भोग सकता है स्वाधीन मनुष्य के लिये ही स्वराज्य है, जो दूसरों को पराधीन रखकर खुद भी पराधीन रहता है वह कभी भी स्वराज्य का मुंह नहीं देख सकेगा। स्वाधीनता के मार्ग में आगे जाने में जो शिक्षा बच्चों को मदद करती है, वही शिक्षा प्राणवान है। बों को अपने आप चलते, दौड़ते, सोख से उंचे पढ़ते और नाम उतरते, अपने पाप नमते, साफ बोलने और आवश्यकामों को जाहिर करते सिखाने में मदद करना चाहिये कि जिससे वे अपने व्यक्तिगत उदंश पार पाड़ने की और अपनी इच्छाओं को दस करने की शक्ति प्राप्त करखें। यह सब स्वाधीनता की शिक्षा है। हम स्वभाव से ही बच्चों की कस करते हैं। प्रेम से या किसी कारण से बच्चों के बजाय उनका काम करते हैं। इमरा यह प्रकृत्य उनके प्रति हमारी गुलामी भरा हुमा है इतना ही नहीं परन्तु का भयकर है कारण यह है कि हमारी मुलामी से बच्चों की उपयोगिता और स्वयं स्फूरित प्रवृत्ति मन ही मन में रहकर उसकी मृत्यु हो जाती है। हम ऐसा मानते हैं कि बच्चे तो सिर्फ पुतले हैं उनको हम गुडिया के माफिक खिलाते पिलाते हैं, हाथ मुँह धोते हैं। हम यह विचार नहीं करते कि बच्चे का नहीं करते इसका कारण मात्र यह है
SR No.541510
Book TitleMahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size14 MB
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