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________________ ( २६ ) ध्यान देने योग्य है। जहां पति-पत्नी को पूरा हो उतना मी मुश्किल से मिलता हो वहां बाल बच्चों का पोषण अच्छा कैसे हो सकता है। इसलिये बच्चे लूले-लंगड़े, कोढी-रोगी, वृद्ध-दुर्बल इन सब को विवाह में फँसाने का मन होता है और ऐसा करने से अपंग, अशक्त, रोगी सन्तान कर कैसा अनर्थ उपस्थित करते हैं। इस बात का उनको विचार नहीं आता है। ऐसे नालायक भी क्षणिक सुख के स्वाद के लिये विवाह करने लग जाते हैं। यह निःसन्देह गृहस्थाश्रम को नीचे लाने का कुकर्म है। ऐसा अन्धेर जितना हिन्दुस्तान में है उतना किसी सभ्य देश में नहीं है। गृहस्थाश्रमी को कम से कम यह तो अवश्य ध्यान में रखना चाहिये कि अच्छी तरह से जितना पालन पोषण किया जा सके उतनी सन्तान से अधिक सन्तान नहीं करनी चाहिये । कामान्ध दशा सन्तान की उत्पत्ति में भी कहां विचार रखने देती है एक तसवीर अथवा बर्तन का घाट उतारने में मी सावधानी की जरूरत पड़ती है । और यह बात समझ में अच्छी तहर से आ सकती है। रंगी, भंगी, शराबी, दुर्व्यसनी समय और स्थिति देखे बिना, आरोग्य अथवा प्रसन्न वृत्ति का ख्याल किये बिना, धीरज का लीलाम कर जिस तरह विषयानल में पड़ जाते हैं यह क्या संघ विधि है ? ऐसी दुर्दशा में गर्भाधान हो तो सन्तति कैसी पैदा होती है ? समझने की जरूरत है कि गर्भाधान तथा गर्भावस्था समय, संयोग और उस समय की विचार भावना सन्तति निर्माण में बहुत बड़ा भाग भजती है। याद रहे कि गृहस्थाश्रम का अर्थ विषय संघ में लगे रहने का नहीं है इससे तो यह आश्रम कलङ्कित होता, बिगड़ता है। गृहस्थाश्रम का मुख्य हेतु यह है कि दम्पती पस्सपर शुद्ध और पवित्र प्रेम को बढ़ा कर धर्म-साधन में और आत्मोन्नति के कार्य में एक दूसरे को अपनी २ शक्ति का लाभ देना चाहिये। दम्पती-युगल यह धर्मरथ या समाज-शकट की बैल जोड़ी है अर्थात् इन दोनों की शक्ति के योग से रथ या शकट की गति में वेग मिल जाना चाहिये और वे उन्नतिगामी होने चाहिये । जहां दो एके इकट्ठे होके ग्यारह होते हैं त्यो दम्पती की दोनों शक्ति इकट्ठी होके उसमें से महान् बल प्रकट होता है। उस बल का अधिक विकास उनके समय पर अवलम्बित है। जितना अधिक ब्रह्मचर्य पाला जाय उतना पालने का खास फर्ज है। ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ये समाज को, देश
SR No.541510
Book TitleMahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size14 MB
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