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जो लोग लोभ की वजह से सारा दिन काम धन्धे में मशगूल रहते हैं उनकी सुसंगति का लाभ उनके परिवार को नहीं मिल सकता इससे उस परिवार का जीवन शुष्क निरानन्दी और कदापि विपरीत संस्कार वाला भी बन जाता है।
बहुत से लोग तो फुर्सत मिलने पर भी उसका उपयोग या तो नाटक, सिनेमा व सर्कस देखने में अथवा दूसरों के यहां जाकर हुक्का गुड़गुड़ाने में या दोस्तों के साथ हिलने फिरने में अथवा टी टीफन लेने में करते हैं। ऐसी आदत वाले अपने घर को अपनी संगति का लाभ नियमित नहीं दे सकते और उसका परिणाम कदाचित यह आता है कि उनको गृह सुख से हाथ धो बैठने का वक्त जाता है।
यह स्वाभाविक है कि फुर्सत के समय में अपने समय को खर्च करने का मन वहीं होता है जहां अपना सब से प्रिय रहता हो, परन्तु इससे विपरीत जो लोग अपनी पत्नी और बाल बच्चों वाला अपना प्रांगन अलग रख कर अपने घर को अपनी संगति द्वारा लाभ नहीं देते हैं और दूसरी जगह व्यर्थ अपने समय को बरबाद करते हैं उनके लिए उनकी पत्नी और बाल बच्चों के हृदय में कैसे खयाल होते हैं वे अच्छी तरह से समझ जाते हैं कि उनके घर का मालिक उनको स्पष्टता से कह रहा है कि, "मुझे तुम्हारी संगति से दूसरों की संगति में ज्यादा आनन्द आता है," और फिर इसका जवाब उनको किस तरह से मिलता है ? सारांश यह है कि घर की दुर्दशा का मूल इसमें से ही पैदा होता है ।
पति का कर्त्तव्य है कि उसको अपना आचरण व्यवहार इस तरह से रखना चाहिए कि उसके विषय में उसकी पत्नी को सन्देह लाने के कारण न मिलें । इस विषय में स्त्री के अन्दर आत्मसम्मान का भाव ज्यादा होता है । दूसरी स्त्री की तरफ अपने पति का अनुराग देख कर उसके हृदय में दाह उत्पन्न होती है और इससे वह बहुत दुःखी होती है। इस तरह अपनी पत्नी के दुःखी होने का अवसर न उपस्थित हो उसके लिए पति का आचरण प्रेममय दयालु और कोमल होना चाहिए कि पत्नी के हृदय में यह प्रमाणित हो जावें कि उसके पति को संसार भर में अच्छी से अच्छी वस्तु वही है ।
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