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________________ ( १०३) अयोध्या, मिथिला, काशी, मगध और उज्जयिनी प्रभृति देशों को इन्हीं गीतों ने वीरत्व और यश से नावित किया था। दुर्दिनों में इन्हीं गीतों को गाकर विमलशाह, वस्तुपाल तेजपाल, समरसिंह, संग्रामसिंह और प्रतापसिंह ने धर्म व जाति की रक्षा के लिये हय का शोणित दान किया था। आज हम दीन दुर्बल हिन्दुओं के आश्वासन का स्थान यही पूर्व गीत मात्र है। ईश्वर से प्रार्थना है कि विपद में, विषाद में, दुर्बलता में हम लोग यह पूर्व कथा न भूलें। जब तक जातीय जीवन रहे हृदय-तन्त्री इन्हीं गीतों के साथ गुंभारती रहे।" परन्तु दुर्भाग्य से गमायण महाभारत के पूर्व व बाद का इतिहास जैसा चाहिये वैसा उपलब्ध नहीं है। कुछ था सो आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया। आज इतिहास का वह पठन पाठन नहीं रहा। इस कारण हम संसार की दृष्टि में भीरु, कायर और अकर्मण्य समझ जाते हैं और आश्चर्य तो यह है कि हम खुद भी अपने को ऐसा ही समझने लगे हैं। क्या वास्तव में हम हमेशा से दीन दुर्बल और शक्तिहीन रहे हैं ? क्या हमारे में कभी भी पौरुष नहीं था ? क्या हमारी तरह हमारे पूर्वज भी भेड़ों की तरह चुपचाप शत्रओं को प्रात्मसमर्पण कर देनेवाले थे ? एक ऐतिहासिक का कथन बहुत ठीक है कि "यदि किसी राष्ट्र ( Nation) को सदैव अधःपतित एवं पराधीन बनाये रखना हो, तो सबसे अच्छा उपाय यह है कि उसका इतिहास नष्ट कर दिया जाय।" ठीक यही हाल भारतवर्ष का हुआ है। यहां सब कुछ होने पर भी संसार और भारतीयों की दृष्टि में कुछ नहीं है। भारतीय विद्यार्थी नेपोलियन बोनापार्ट, मार्टिन ल्दथर, जोन ऑफ आर्क, क्विन इलिजाबेथ आदि के सम्बन्ध में जितना ज्ञान रखते हैं, उसके दश हिस्से का भी वे महाराना साना, पृथ्वीराज चौहान, राजा मानसिंह, सम्राट् चन्द्रगुप्त राष्ट्रकूटपछि अमोघवन, सम्राट् खारवेल, शंकराचार्य, दयानन्द, विवेकानन्द और वाराङ्गना लक्ष्मीबाई के निस्वत ज्ञान नहीं रखते । इतिहास और पुरातत्व की जो प्रगति आखीर के सौ वर्षों में हुई है, वह पहले नहीं थी । जब तक भारतीयों ने अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचाना था, तब तक संसार में भी हमारा कोई स्थान निर्णिन नहीं था । स्व० बंकिमचन्द्र ने बहुत ही अच्छा कहा है कि "जो कोई अपने को महापुरुष कह कर परिचय नहीं देता, उसे कोई आमियों में ही नहीं गिनता। कब किस जाति ने दूसरों
SR No.541510
Book TitleMahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size14 MB
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