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________________ पुस्त। 3 आखिर में दिया हुआ श्री बृहतकल्पभाष्य और टीका का पाठ देखकर वाचको को मालूम होगा कि चैत्यद्रव्य का नाश रोके याने चैत्यद्रव्य की रक्षा करे तो अनवस्थाप्य ओर पारा० माफ होवे । अब सोचिये कि चैत्य द्रव्य के रक्षण में कितना बड़ा फायदा होगा कि जिससे बडा से बडा प्रायश्चित्त भी साफ हो जावे. और इस ही लेख से यह भी समझ सकोगे कि चैत्य द्रव्य का रक्षग नहीं करके भक्षण करने का रास्ता निकाले या उपेक्षा करें तो उसको कितना भारी दोष होता होगा वह ज्ञानी ही जान सक्ता है । क्योंकि अनवस्थाप्य और पारांचिक स्थान में भी कहे हुए अपराध इनसे कम मान गये. देवद्रव्य का भक्षण नहीं करना और रक्षण ही करना सिर्फ इतना ही कार्य गृहस्थों का नहीं है किन्तु और भी वृद्धि करने का भी कार्य उनका है यद्यपि साधु महात्माओं के लिये ये दोनों ही कार्य याने भक्षण नहीं करना यही है क्योंकि साधु महात्मा अकिञ्चन हैं और सामायिक सिवाय की प्रवृत्ति के त्यागी हैं, इससे साधु महात्मा वृद्धि का न तो अधिकारी है न तो करसक्ते हैं, लेकिन जो लोक सर्वथा परिग्रह के त्यागी नही है. और न तो जिन्होंने सर्व सावध छोडा है, वैसे गृहस्थ लोगों के लिये देवद्रव्य की वृद्धि करनी बहुत जरूरी है । देवद्रव्य की वृद्धि करने वाला क्या क्या फल पाता है इसके लिये पेश्तर देखिये उपदेश पद का पाठ : जिणपवयणवुद्धिकरं पभावगंणाण दंसणगुणाणं । वडहंतो जिणदवं तिथ्थयरत्तं लहइ जीवो ॥४१८॥ पूर्वाद्धव्याख्या पूर्ववत् । वर्द्धयन् अपूर्वापूर्वद्रव्यप्रक्षेपण वृद्धि नयन् जिनद्रव्यं, तीर्थकरत्वं चतुवर्णश्रीश्रमणसंघकर्तृत्वलक्षणं लभते जीवः ॥४१८॥ जैनशासन की वृद्धि करने वाला और ज्ञान दर्शन का विस्तार करने वाला ऐसा जिन द्रव्य को बढाने वाला जीव तीर्थङ्करपना पाता है। उपर के मूल के पाठ से वाचक जन साफ २ समझ सकेंगे कि देव
SR No.540003
Book TitleAgam Jyot 1968 Varsh 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1968
Total Pages312
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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