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पुस्त 3माननेके लिये तैयार नहीं है, प्रत्याख्यान नहिं करना वह पाप है, पाप करना अच्छा बिलकुल नहीं हैं एसा मनमें आया नहीं, 'न्हाया इतना पुन्य' ए अन्यमतके हिसाबसे गिंनो तो जैन मतके हिसाबसे 'नहिं न्हाया इतना पाप' ऐसा नहीं माना. जिसका पञ्चक्खाण न हुआ इसका पाप लग रहा है. बारह जो अविरति है उसमें से जितनी अविरतिकुं त्याग नहीं किया उतना पाप है. पांचइंद्रियों का विषय छकाय और मनकी अविरति वो सब पाप है. विरति पुण्य है, विरति संवर है, आनेवाले पापकुं रोकने वाली है इस तरह माना नहीं, अविरतिकुं पापका द्वार मानना है, उस द्वारसे हरदम पाप चला आ रहा है, यह मानना बहुत कठिन है. ___अविरति जरुर पापही है, क्रोधादिकुं स्थूल दृष्टिसें पाप मानते हैं, जिस वखत आंख लालचोळ हो जाती है, होठ फफडने लग जाते हैं तो क्रोध भी एक जातका बुखार है, बुखार जैसा चिन्ह क्रोधमें होता है, गुस्सेके समय क्या होता है ? जरा विचारिये सामने आरिसा धरिये - क्या होता हे ? नेत्र लाल हो जाते है, नाक भी फूल जाता है गला सूसता है-शरीर गरम होता है, भोजन की अरुचि होती हैं जैसी बुखारकी हालत केसी ही हालत क्रोधकी ओर गुस्सा की. तो ए क्रोधकुं पिछानना चाहिये. जबतक तत्वकुं तत्व तरीके नहीं माने, अतत्वकुं अतत्व न माने तब तक क्रोधादिक भी ऐसा मनमें आता नहीं है.
मिथ्यात्वका सामान्य लक्षण यह है कि - शुद्धदेवकुं शुद्धदेव तरीके न माने, अशुद्ध देवकुं अशुद्ध न माने, तो उसको मिथ्यात्व कहेते हैं,
श्रावकका आठ वरसका लडका अरिहंतको देवके रूपमें और कंचनकामिनीके त्यागीकों गुरुके रूपमें ओर तीर्थंकरोंकी आज्ञाको धर्मके रूपमें मानता है दूसरे जो कुदेव है उनको कुदेव मानता है तो उसकुं समकिती कहाता है, बाबाने सिखाया कि यह अपना देव गुरु और धर्म ! यहांपर बाबाजीके वाक्यसे चल रहा है प्रतीति नहीं है.