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________________ : ४च्या : माय-येप्रीम : १८५८ : 3५ : लाभानन्दजी था इसमें कोई संशय नहीं रह ही प्रभावित हुए और गद् गद् हृदय से बडी जाता। तब यशोविजय उपाध्याय के लिए "लाभा- ही भावभीनी स्तुति की। नन्द" नाम आज तक कहीं भी प्रयुक्त नहीं देखा ‘जसविजय कहे सुनी हो आनन्दघन हम गया। यशोविजय उपाध्याय की रचनाओं की तुम मिले हजूर" जो टीप संवत् १७६९ की लिखी हुइ मिली है। ___इस में स्पष्ट रुप से जसविजयजी आनन्दउसमें "मानन्दधन बावीसी बालावबोध यशो ___घनजी को सम्बोधित कर के कह रहे है कि विजयजी द्वारा लिखे जाने का उल्लेख है। मेरा और आप का साक्षात्कार हुआ। इसी यशोविजयजी की तो चाबीसीये ही मिलती है, ' प्रकार 'आनन्दघन के संग सुजस ही मिले जब, बावीसी नहीं । इससे भी दोनों की पृथकता तब आनन्द सम भयो सुजस । " यहां 'सम' सिद्ध है। यशोविजयजी ने आनन्दघनजी की शब्द दोनों की प्राथमिक भिन्नता और फिर स्तुति के रुप में जो अष्टपदी बनायी है उस अभिन्नता और आगे दृष्टांत में कि पारस के की निम्नोक्त शब्द विशेष ध्यान देने योग्य है: स्पर्श से लोहा कंचन हो जाता है । खीर और "मारग चलत चलत जात, आनन्दघन प्यारे, नीर के मिलने से आनन्द होता है- इसी ___ रहत आनन्द भरपूर तरह जब आनन्दघन के साथ यशोविजय मिले ताको स्वरुप भूप, तिहु लोक थे न्यारो, तो आनन्दघनजी के समान यशोविजय एक बरसत मुख पर नूर, रस हो गये । जिन वाक्यों के आधार से सारासुमति सखी के संग नित नित दोरत, भाइ ने दोनों की एक होने की धारणा बनाइ कबहुं न होत हि दूर, है उसी अष्टपदी से दोनों के पृथक्त्व की खूब यशविजय कहे सुनहु आनन्दघन, स्पष्टता एवं सिद्धि है।ती है। हम तुम मिले हजूर, अब साराभाइ की दूसरी लील रही कि कोई आनन्दघन छिद्र ही पेखत, समकालीन दूसरे किसी व्यक्ति ने आनन्दघनजी जसराय संग चढि आया, का उल्लेख नहीं किया पर हमें एक ऐसा महान आनन्दघन आनन्द रस झीलत, __ पूर्ण उल्लेख प्राप्त हुआ है जिसे यहां दे देखत ही जस गुण माया, रहे है:आनन्दघन के संग सुजस ही मिले जब, जैसल मेर में जब मुनि पुण्यविजयजी थे __ तब आनन्द सम भयो सुजस, तब साराभाई भी वहीं थे, और में वहां "पारस संग लोहा जो फरसत, पहुंचा । उनके अहमदाबाद जाने के बाद एक कंचन हेत हि ताको कस," दिन पुण्यविजयजी के 'भारतीय जैन श्रमण इत्यादि वाक्य स्पष्ट बतला रहे है कि संस्कृति अने लेखन कला' ग्रंथ को उलटते पलयशोविजयजी आनन्दघनजी से मिलकर बहुत टते एक हस्तलिखित पत्र उसमें रखा हुआ मिला
SR No.539183
Book TitleKalyan 1959 03 04 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomchand D Shah
PublisherKalyan Prakashan Mandir
Publication Year1959
Total Pages130
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Kalyan, & India
File Size20 MB
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