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________________ : ३४ : मे वियार: करतां तेओश्री अने उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी भाई कि विचारणा पर ही निर्भर हो। खैर एक ज छे तेवी दृष्टि राखीने जो बन्नेनी कृति- हम तो इस संबंध में सप्रमाण यह बता देंगे योन बारीक निरीक्षण करवामां आवे तो म्हारी कि ये दोनों व्यक्ति एक नहीं पर अलग अलग मान्यताने पुष्टि करतां प्रमाणो मली आवशे। ही है। ___मारुं ते साचु एवी मान्यता वाळा हु सबसे पहले हमें विचारना यह है कि नथी । साचूं ते मारु ऐ मान्यताने हुं स्वीकार आनन्दघनजी का मूल नाम क्या था ? आनन्दकरनाराओमां एक छु। घन तो अनुभव प्रधान उपनाम है उनका दीक्षा मने एम लागे छे के पूज्य उपाध्यायजी नाम "लाभानन्द" था। इसके संबंधमें श्री ज्ञानमहाराजने तेओनीनी अंतिम अवस्थामां पातानु विमलसूरि, श्री देवचन्दजी एवं श्री ज्ञानसारजी नाम गोपवीने आनन्दघननु उपनाम धारण कर आदि अनेक विद्वानों के उल्लेख मिलते हैं। वानु योग्य लाग्यु हसे ।” ज्ञानविमलसूरिने श्री आनंदघनजी की चोबीसी के टब्बे में स्पष्ट लिखा हैउपर्युक्त उद्धरणों में से पहले पेरे में निश्चित शब्द का प्रयोग किया गया है कि “बीजू काई ज लाभानन्दजी कृत तवन घेतला वाबीस नहीं पण यशोविजयजीज छे" यही वाक्य विशेष दिसइ छइ यद्यपि हस्ये तो पण आपणइ हस्तइ आपत्तिजनक है व विचारणीय है ही। पिछले नथी आव्या छे, स्तवन न सांभरया अने आनंदपेरे में दिआ हआ प्रमाण व अनुमान तो कोई घनजी संज्ञा स्वनामनी करी छइ एउं लिंग स्वमहत्व नहीं रखता। क्योंकि विषय-साम्य के रूप मूक्यांथी जाणवो" हमारे संग्रह की प्रति उदाहरण नहीं दिये गये और अन्य किसी व्यक्ति में चौबीसी बालाबोध के अन्त में 'इति श्री द्वारा उल्लेख न किये जानेसे ही दोनों व्य- लाभानन्दजी कृत चतुर्विंशति स्तवनमिदं" लिखा क्तियों को एक मान लेना भी कोई संगत कारण है। इससे आनन्दघनजी का नाम लाभानन्दजी नहीं कहा जा सकता। अब में इस संबंध में था स्पष्ट ही है । श्रीमद् ज्ञानसारजी ने भी सप्रमाण चर्चा करूंगा । जिससे यह निश्चित हो अपने विवेचन में लिखा है:- “परं लाभानजायगा कि साराभाई की धारणा सर्वथा भ्रमपूर्ण न्दजी कृत स्तवन रचना, ने म्हारी स्तवनकृत है। उन्होंने यशोविजयजी और आनन्दघनजी रचन। में अन्तर रात्रि दिवस छ ।” को एक मानते हुए अन्य जैन विद्वान मुनियों श्रीमद् देवचन्द्रजी ने अपने बिचाररत्नसार की भी यही राय है ऐसा मोगम उल्लेख किया प्रश्नोत्तर में भी आनन्दघनजी का नाम 'लाभाहै पर वे मुनि कौन है ? और उनकी इस नन्द' ही दिया हैं "प्रवचन अञ्जन जो सद्गुरु धारणा का क्या आधार हैं ? यह प्रकाश में करे, तो देखे परम निधान जिनेश्वर" एवं श्री आये बिना उसके सम्बन्ध में कुछ विचार लाभानन्दजीए पण का छे । ” इन तीनों नहीं किया जा सकता । सम्भव है वह सारा- बड़े विद्वानो के उल्लेखोंसे आनन्दघनजी का नाम - -
SR No.539183
Book TitleKalyan 1959 03 04 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomchand D Shah
PublisherKalyan Prakashan Mandir
Publication Year1959
Total Pages130
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Kalyan, & India
File Size20 MB
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