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: ११० यात्मा ५२मात्मा । प्रति!ि : सभी प्रश्नो के प्रामाणिक उत्तर प्राप्त होने होती है वह चेतन के कारन. जिसका प्रत्यक्ष चाहिये ! साधारणतया जब यह प्रश्न उठता प्रमाण यह है कि शरीर के होते हुए भी एक
कि शरीर के अंग. किसके आदेश से कार्य एसी घडी आ जाती हैं जब शरीर सब क्रियाएं करते है ? तो इसका उत्तर मस्तिष्क एवम् करना बन्द कर देता है, जिसे मृत्यु कहवा है। इससे सम्बन्धित अंगो से होता है। परन्तु जब मृत प्राणी के शरीर में वे सभी अंग विद्यमान इस प्रश्न से ही जब यह उपप्रश्न उठ आता है कि है जो मृत्यु के बेक क्षण पूर्व थे. तब शरीर में मस्तिष्क एवं सम्बंधित अंग किसके आदेश पर जैसा क्या परिवर्तत हो गया जिससे मस्तिष्कादि कार्य करते है ? इसका आत्मा के अतिरिक्त अंग कार्य नहीं करते। इस प्रश्न का उत्तर एक भी प्रामाणिक उत्तर नहि प्राप्त होता । अब केवल यही हो सकता है कि जड शरीर से और आगे चलो. साधारणतया यह सभी कक्षा- चेतनत्व जिसे हम आत्मा कहते है पृथक हो ओ में यह बताया जाता है कि हम प्रत्येक क्षण गया. जिसके अभाव में शरीर कार्य नही कर कुछ न कुछ कार्य करते रहते है व कार्य करने सकता। इस प्रकार हम यह कह सकते है कि से हमारे शरीर की कोठरी (Cells) टूटती जड शरीर में जो क्रिया होती है वह चेतन के फूटती रहती है। इस नष् हुई शक्ति को पुनः कारण। अगर जड शरीर में स्वत. क्रिया करने पैदा करने के लिये हम भोजन करते है और कि शक्ति होती तो मृत्युका प्रश्न कभी नही भोजन के तत्त्व पन. शक्ति पैदा करते है और उठ सकता। जैसी हालत में हमें मानना ही हम कार्य करने योग्य बन जाते है। इन तथ्यो होगा कि शक्ति जिसे हम चेतन अथवा आत्मा से तो यह समझा जाता है कि प्राणि के शरीर कहते है उसकी उपस्थिति तक हि शरीर क्रिया से नष्ट होने वाले तत्त्व भोजन से पनः बनते कर सकता है । इस विवेचन के साथ अपराक्ष जाते है ; अगर वास्तव में यही सत्य है तो रुप से यह भी प्रामाणिक हो जाता है की सुख- . अनायास मृत्यु का प्रश्न व्यों बना रहता है, दुःख का भोगनेवाला शरीर नहीं बरन् आत्मा ही मृत्यु होनी ही नहीं चाहिये, प्रयोग के लिये है। प्रमाण के लिये जब कभी हमारे शरीर एक पानीका कटोरा लो और उसे गर्म करे। पर काई बाह्य प्रभाव पडता है हम वाताकुछ समय के पश्चात् देखेगें कि गर्मी बाष्प वरन के अनुसार सुख-दुःखका अनुभव करता बनकर हवा के साथ मिल जाता है, पर साथ ह. परंतु अगर मृत प्राणी का सुख अथवा दुःख ही यह ध्यान रहे कि जितना पानी प्रत्येक क्षण देने की प्रयास किया जाय तो उसे सुख-दुःख बाष्प बनकर उडता जाता है उतना ही पानी का अनुभव नही होता, क्यु कि अगर किसी कटोरे में डालते रहो और गर्म करते रहो! प्रकारका अनुभव होता तो उसके शरीर पर पाठक गण स्वयं ही सोचे कि इस प्रकार कटोरे कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य ही होता, अतः के पानी की समाप्ति होना सम्मव नही तो भला स्पष्ट है कि अपरिवर्तनता के हेतु आत्मा का नष्ठ प्राण तत्त्व को निरंतर उसी रीत से निर्माण अभाव है। क्युकि आत्मा की उपस्थिति में होते रहने पर मृत्यु कैसे सम्भव है ? में अपने ही शरीर को सुख-दुःख का अनुभवहे आता है , और कथन के द्वारा वैज्ञानिक तथ्यों का लंघन नही उसके चले जाने पर कोई संवेदना नही होती. करता वरन् उन वैज्ञानिक बंधुओ से अनुरोध अतः हम यही कह सकते है कि आत्मा स्वयं है कि दर्शन एवम् विज्ञानका सामञ्जस्य करते सुख दुःख से प्रभावित होता. सुख दुःख के लिये हो जैसे प्रामाणिक तथ्यों का सामने जो बिना आत्मा की सम्बन्ध शरीर से कुछ भी नही हो । किसी तर्क के स्वीकृत किये जा सके। सकता. केवल शरीर एक जैसा साधन है जिससे
दर्शन के अनुसार जड शरीर में क्रिया जो आत्मा को प्रभावित किया जता है.