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________________ बिखरे फुल. : 33: — (१३) किसी पापका सच्चा प्रायश्चित्त तब अपना सुधार करना अपने हाथ है, उसको होता है जब १. उसके लिये मनमें भयानक नहीं करता और अपनेको परिस्थितिके वश पीडा-घोर पश्चात्ताप हो, २. भविष्यमें वैसा मानकर अपने दोषोंका समर्थन करता है, पर न करनेका दृढ निश्चय हो, ३. अपने पापको दूसरेका सुधार करनेके लिये प्रयत्न करता है, प्रकट करके नीचातिनीच कहलाने और सम्मान जो उसके हाथमें नहीं है। करनेवाले लोगोंके द्वारा भी तिरस्कृत होनेका (१९) जिसका जीवन जितना हो आडंबर साहस हो, ४. पापके फलस्वरुप किसी भो और विलाससे युक्त है, जिसको रहन-सहन दण्डके सहने में प्रसन्नता हो और ५. श्रीभग- जितना ही व्यर्थके शौकोंसे भरी है, ऊसका वानसे यह कातर प्रार्थना हो कि उनकी कृपासे जीवन ऊतना हो अधिक अभावयत, धनकी फिर कभी ऐसा कुकर्म बनें ही नहीं। दासता तथा धनके लिये अन्यायका आश्रय (१४) क्रोध जिसको आता है उसको पहले लेनेवाला, अशान्त और दुःखी है। ऐसे मनुजलाता है और जिसपर आता है उसको पीछे ष्यके लिये सबसे अधिक हानिकी बात यह क्रोध आनेपर यदि मनुष्य चुप रह जाय तो है कि वह धनियोंका मुखापेक्षी, धनियोंका अंदर-ही अंदर ऊसे जलाकर क्रोध भी जल पदानुगामी, धनीयोंका गुलाम, धनीयोंके दोजाता है; पर यदि क्रोधके वशमें होकर शरीर षोंका समर्थक और धनियोंके बुरे आचरणों का या वचनसे कोइ क्रिया हो जाय तो फिर वह अनुसरण करनेवाला बनकर शीघ्र ही पतित दूसरों को भी जलाता है और आगकी तरह हो जाता है। चारों और फैलकर तमाम वातावरणको संता- (२०) जिसका जीवन जितना हो सीधापसे भर देता है। फिर वह गरमी सहज ही सादा और सन्तोषयुक्त है, वह उतना ही शान्त भी नहीं होती। स्वालम्बी, न्यायप्रिय, शान्त, सुखी और __(१५) क्रोधमें जब जबान खुलती है तब निष्पाप है । विवेककी आंखे मुंद जाती है। उस समय (२१) किसोको नीचा दिखाकर या किसीकी ऐसी बातें मुंहसे निकल जाती है, जिनके निन्दा करके अपना गौरव बढानेका प्रयास लिये केवल इसी जीवनमें नहीं, कइ जन्भ- करना बहुत बडी मूर्खता और नीचता है। तक पश्चात्ताप करना पडता है। ___ (२२) संसारमें ऐसा कोई नहीं है, जिसमें (१६) वही सच्चा शूर है जो मनके क्रोधको दोष-ही-दोष हों। खोजनेपर निकृष्ट-से निकृष्ट मनहीमें मार डालें, बाहर प्रकट होंने ही न दे। वस्तुमें भी अद्भुत गुण मिल सकते हैं। गुण और वह तो सर्वविजयी है जिसके मनमें भी देखनेवाली आंखें चाहिये। क्रोध उत्पन्न न होता हो। (२३) दोष देखनेबाला सदा घाटेमें रहता (१७) कामकी कुक्रिया एकान्तमें होती है, है। दिन-रात दोषदर्शन और दोष-चिन्तनसे अतः बुद्धिमान् पुरुषोंको एकान्तकी कामोत्तेजक ऊसके अंदरके दोष पुष्ट होते और नये-नये परिस्थितिसे सदा- बचना चाहिये। अर्थात् दोष आ-आकर अपना घर करते रहते है, फलतः एकान्तमें किसी भी पुरुषसे स्त्रीको और किसी उसका जीवन दोषमय बन जाता है। भी स्त्रीसे पुरुषको नहीं मिलना चाहिये। (२४) जो सबमें दोष देखता है, उसका ___ (१८) मनुष्य कितना धोखा खा रहा है। गुण ग्रहण करनेको शक्ति नष्ट हो जाती है
SR No.539037
Book TitleKalyan 1947 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomchand D Shah
PublisherKalyan Prakashan Mandir
Publication Year1947
Total Pages78
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Kalyan, & India
File Size12 MB
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