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....: विखरे फूल : पहचान लेते हैं, तब किसी भी रुपसे न द्वेष
(१) बह मनुष्य अपनेको धोखा देता है रहता है, न भय और न घृणा ही। जो यह कहता है कि मुजें भगवानको पुका- (७) यदि हृदयमें निर्मल प्रभुभक्ति नहीं रने या भगवानका नाम लेनेके लिये समय है तो समझना चाहिये कि अभी सच्चो साधुनहीं मिलता। भगवानको पुकारनेके लिये ताका विकास नहि है। क्योंकि जहां प्रेभ नहि किसी बाहरी आडम्बरकी आवश्यकता नहीं होता, वहां गंदा स्वार्थ रहता हे और जहां है, किसी भी स्थितिमें किसी भी समय संसा- स्वार्थ है वहां न है त्याग, न है उंची साधना रका कोई-सा भी काम करता हुआ मनुष्य और न है विषयासक्तिका अभाव । प्रेमहीन भगवानको पुकार सकता है और भगवानका मनुष्यका जीवन घोर विषयी जीवन है, वह नाम ले सकता है। . सर्वथा मरुभूमिके सदृश शुष्क और उत्तप्त है।
(२) शरीर उस सूखे पत्तेके समान है,.. (८) यह शान्ति व्यर्थ है जिसमें भगवान जो हवाके झोंकेसे इधर-ऊधर उडता रहता पर सरल निर्भरता न हो, वह साधना निकृष्ठ ह और आत्मा ऊस वृक्षके समान है; जो सदा है, जो अपने अंदर उंचेपनका अभिमान पैदा साक्षोकी भांति पत्तका ऊडना देखता है। कर दे और वह भक्ति विष है, जो भगवानकी अतएव आत्मनिष्ठ महात्मा पुरुष प्रारब्धवश गद्दी पर बैठने के लिये मनमें लालच पैदा करदे। संयोग-वियोगके चक्करमें भटकनेवाले शरीरके (९) जितने भी पार्थिव सुख है, सभी दृष्टा रहकर परमानन्दमें निमग्न रहते है। न अशद्ध और अकल्याणकारी है, योंकि उनकी शरीरके रहने में उन्हें स्पृहा है और न उसके उत्पत्ति ही अशुद्ध, अनित्य और दुःखदायो नष्ट होने में उन्हें दुःख है। .. भोगो से होती है। सच्चा सुख वही ह जो .. (३) जहां धर्मका सहारा लेकर स्वार्थ सत्यस्वरुप भगवानकी स्मृतिसे मीलता है।
अपना साम्राज्य विस्तार कर बैठता है, वहां (१०) सच्चे परतन्त्र और गुलाम वही हैं निर्दयता, बर्बरता हिंसा, विनाश और मानव- जो इन्द्रिय और मनकी दासतामें जकडे ह चरित्र तथा मानव सभ्यता पर अमिट कलंक जो इन्द्रियोंकी तृप्ति और मनकी मुराद पूरी लगना अवश्यम्भावी है।
करने में ही जुटे हुए है। मन-इन्द्रियोंपर जिसका . (४) धर्मके नामपर होनेवाली स्वार्थकि प्रभुत्व है. जो इनके इच्छानुसार नहि चलता क्रियासे धर्मकी जितनी हानि होती है, उतनी बल्कि इन्हे अपने. इच्छानुसार चलाता हैं,
प्रत्यक्ष अधर्माचरणसें नहीं होती। सच्चा स्वतन्त्र और स्वामी तो बही है। .. (५) महापुरुषोंके प्रति जबतक श्रद्धा-वि- (११) जो बीत गया है उसकी चिन्ता श्वासका उदय नीं होता, तबतक भगवत्तत्त्व करना व्यर्थ है, इसी प्रकार भविष्यके लिये प्राप्तिकी कामना और आशा कभी पूरी नहीं भी चिन्ता करनेमें कोई लाभ नही। वर्तमान हो सकती।
तुम्हारे हाथमें है, इसे सुधारो जिसका वर्त(६) नाटकमें यदि हमारे पिता या हमारें मान सुधर गया ऊसका भविष्य आप ही कोइ प्रिय मित्र राक्षस, भूत या सिंह-बाघके सुधर जायगा। वेषमें आते हैं तो उन्हें पहचान लेनेपर हम (१२) सच्चा पश्चात्ताप वही है जो फिर क्या ऊनसे डरते हैं या ऊनसे द्वेष करते हैं? वैसा कर्म न होने दे । वह पश्चात्ताप व्यर्थ है ऐसे ही आत्माको जब समस्त रुपों में हम जिससे कुकर्मका प्रवाह रुके नहीं।