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________________ 85 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 माध्यम से कोई प्रयत्न किया जाता है, वह सीमित और सापेक्ष बनकर रह जाती है। अनन्तधर्मात्मक परमतत्त्व की अभिव्यक्ति का जो भी प्रयत्न होगा, वह तो सीमित और सापेक्ष ही होगा। एक सामान्य वस्तु का चित्र भी जब बिना किसी कोण के लेना संभव नहीं है तो फिर उस अनन्त और अनिर्वचनीय के निर्वचन का या दार्शनिक अभिव्यक्ति का प्रयत्न अनेकान्त की पद्धति को अपनाए बिना कैसे संभव होगा? यही कारण है कि चाहे कोई दर्शन हो, उसकी प्रस्थापना के प्रयत्न में अनेकान्त की भूमिका अवश्य निहित है और यही कारण है कि संपूर्ण भारतीय दार्शनिक चिंतन की पृष्ठभूमि में अनेकान्त का दर्शन छिपा हुआ है। सभी भारतीय दर्शन किसी न किसी रूप में अनेकान्त को स्वीकृति देते हैं इस तथ्य का निर्देश उपाध्याय यशोविजय जी ने अध्यात्मोपनिषद् (1/45-49) में किया है, हम प्रस्तुत आलेख का उपसंहार उन्हीं के शब्दों में करेंगे - चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन्। योगो वैशेषिको वापि नानेकातं प्रतिक्षिपेत्।। विज्ञानस्य मैकाकारं नानाकारं करंबितम्। इच्छस्तथागतः प्राज्ञो नानेकातं प्रतिक्षिपेत्।। जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम्। भाट्टो वा पुरारिर्वा नानेकातं प्रतिक्षिपेत्। अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः। ब्रवाणो भिन्ना-भिन्नार्थान नवभेदव्यपेक्षया। प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम्।। - प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर (म.प्र.)
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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