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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 जैनकर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त - प्रो. श्रीयांश कुमार सिंघई सम्पूर्ण जगत् एवं उसमें विद्यमान वस्तुओं को समझना सचमुच ही एक जटिल पहेली है, जिसे सुलझाने का प्रयास भारतीय मनीषा ने किया है तथापि उसे समझ पाना टेढ़ी खीर अवश्य है। परितः परिलक्षित नानाविध वस्तुओं एवं उनमें होने वाला क्षण-क्षणवर्ती परिणमन-बदलाव ऐसा शाश्वत सत्य है जो बुद्धिगम्य होकर भी हमारे बौद्धिक व्यापार के लिये चुनौती बना हुआ है। एक तरफ हमारी अल्प सामर्थ्य बुद्धि है तो दूसरी तरफ हैं अनन्त सामर्थ्य संधारक अनन्तानन्त पदार्थ। सूक्ष्म-स्थूल मूर्त-अमूर्त, चित्-अचित् आदि नानाविध एकल पदार्थों की समदिष्ट का द्योतक या बोधक ही जगत् माना जाता है। इस जगत् में ज्ञेय पदार्थ अनन्त हैं और उन्हें जानने वाले ज्ञाता का ज्ञान अकेला-एक ही है। ज्ञान एवं ज्ञेयों की सामर्थ्य (योग्यता) को साक्षात् एवं सम्पूर्ण रूप से जान पाना सम्भव नहीं लगता है इसका कारण है हमारे ज्ञान का पराधीन, ऐन्द्रिक एवं परलक्ष्मी होना। यदि हम जगत् विषयक सत्य को अंशतः भी सही जानना चाहते हैं तो हमें अपने व्यवहार को स्वाधीन अतीन्द्रिय एवं स्वलक्षी बनाना होगा। एतदर्थ आवश्यक है कि हम यथार्थ के धरातल पर अवस्थित होकर ज्ञान एवं ज्ञेयों के स्वातन्त्र्यमूलक चिन्तन को महत्त्व दें और चेतन-अचेतन वस्तुओं की मर्यादा, अर्हता आदि को समझें। वे जैसी हैं उन्हें उनके स्वभाव से जानने का श्रम करें, तत्त्वज्ञानी बनें काल्पनिक वस्तुओं के ज्ञानी एवं अन्धविश्वासी नहीं। भारतीय संस्कृति में समादृत वैदिक या श्रमण धारा का कोई भी चिन्तन हमें अन्धस्तमस् व्यामोहों में उलझने की अनुमति नहीं देता है। अतः एक जागरूक चेता के रूप में हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम श्रुत (जैन आगम) और श्रति (वेद) में विद्यमान उपदेशों का अभिप्राय समझें और
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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