SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 अपने मन के निश्चयभूत होने पर सर्व विकल्प समूह के नष्ट होने पर विकल्परहित। निर्विकल्प, निश्चय, नित्य शुद्ध स्वभाव स्थिर होता है। चित्त में स्थिर होने से योगियों को ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति अवश्य ही होती हा चित्त में स्थिरता के लिए कषायों का त्याग अनिवार्य है। स्वरूप सम्बोधन में लिखा है कषायैः रंजितं चेतस्तत्त्वं नैवावगाहते। नीलीरक्तेऽडम्बरे रागो दुराधेयो हि कौड्कुमः॥ 17।। कषायों से रंजित चित्त तत्त्व का अवगाहन नहीं कर सकता। नीले रंग के कपड़े पर कुंकुम का रंग निश्चित ही नहीं चढ़ सकता। प्रवचनसार में वर्णन है चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्हि। ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सो अप्पगं सुद्ध॥ 1/79 पाप का कारण आरम्भ को छोड़कर अथवा शुभ आचरण में प्रवर्तता हुआ जो पुरुष यदि मोह, राग, द्वेषादिकों को नहीं छोड़ता है वह पुरुष शुद्ध अर्थात् कर्मकलङ्क रहित शुद्ध जीव द्रव्य को नहीं पाता। आचार्य नेमिचन्द्र ने लिखा है मा मुज्झह मा रज्जहं मा इसह इट्ठणिट्ठअढेसु। थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पिसिद्धीए॥ - द्रव्यसंग्रह गा. 48 हे भव्यजनो! यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यान की सिद्धि के लिए चित्त को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्ट रूप जो इन्द्रियों के विषय हैं उनमें राग, द्वेष और मोह को मत करो। मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स। जामदि विविहो बंधो तम्हा तं संखवइयव्वा। प्रव.सार 1/84 मोह भाव से अथवा राग भाव से अथवा दुष्ट भाव से परिणमते हुए जीव के अनेक प्रकार कर्मबन्ध उत्पन्न होता है इसलिए वे राग, द्वेष और मोह भाव मूल सत्ता से क्षय करने योग्य है।
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy