SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 किसी अधर्म-अशोभन- अपावन मनुष्य के पूजा कर लेने पर वह देव नाराज हो जायगा और उसकी नाराजगी से उस मनुष्य तथा समूचे समाज को किसी दैवी कोप का भाजन बनना पड़ेगा; क्योंकि ऐसी शंका करने पर वह देव वीतराग ही नहीं ठहरेगा- उसके वीतराग होने से इनकार करना होगा और उसे भी दूसरे देवी - देवताओं की तरह रागी - द्वेषी मानना पड़ेगा। इसी से अक्सर लोग जैनियों से कहा करते हैं कि- "जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासना की कोई जरूरत नहीं, कर्ता-हर्ता न होने से वह किसी को कुछ देता - लेता भी नहीं, तब उसकी पूजा - वन्दना क्यों की जाती है और उससे क्या नतीजा है?" इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर स्वामी समन्तभद्र, जो कि वीतरागदेवों को सबसे अधिक पूजा के योग्य समझते थे और स्वयं भी अनेक स्तुति-स्तोत्रों आदि के द्वारा उनकी पूजा में सदा सावधान एवं तत्पर रहते थे, अपने स्वयंभूस्तोत्र में लिखते हैं न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त - वैरे । तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्न: पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥ अर्थात् - हे भगवन्! पूजा - वन्दना से आपका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योंकि आप वीतरागी हैं- राग का अंश भी आपके आत्मा में विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसी की पूजा - वन्दना से आप प्रसन्न होते। इसी तरह निन्दा भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है- कोई कितना ही आपको बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उस पर आपको जरा भी क्षोभ नहीं आ सकता; क्योंकि आपके आत्मा से वैरभाव - द्वेषांश बिल्कुल निकल गया है- वह उसमें विद्यमान ही नहीं है- जिससे क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्यों का उद्भव हो सकता। ऐसी हालत में निन्दा और स्तुति दोनों ही आपके लिये समान है- उनसे आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है। यह सब ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो आपकी पूजा-वन्दनादि करते हैं उसका दूसरा ही कारण है, वह पूजा - वन्दनादि आपके लिये नहीं - आपको प्रसन्न करके आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वारा आपको कोई लाभ पहुँचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्य गुणों का स्मरण - भावपूर्वक अनुचिन्तन-, जो हमारे चित्त को - चिद्रूप
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy