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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
दर्शन पाहुड में वे स्पष्ट कहते हैं'असंजदंण वंदे वच्छविहीणोवि सो ण वंदिज्जा' (दसण-26)
असयंमी को नमस्कार नहीं करना चाहिए और जो वस्त्र रहित होकर भी असंयमी है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है।
जो सम्यग्दर्शन से रहित है उसकी वन्दना नहीं करना चाहिए_ 'दंसणहीणो ण वंदिव्वो' (दर्शनपाहुड-2)
यह तो आचार्य कुन्दकुन्द की स्पष्ट आज्ञा है, किन्तु हम जैसे अधिकांश कहीं लाज के करण, कहीं भय के कारण या कहीं झूठे सम्मान के लिए अन्यत्र भी वन्दना करने लगते हैं। उसके लिए आचार्य कहते हैं
कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंगं च वंदए जो दु। लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु॥
(मो.पाहुड-92) जो लज्जा, भय और गारव से कुत्सित देव, कुत्सित धर्म और कुत्सित लिङ्ग की वन्दना करता है, वह मिथ्यादृष्टि होता है।
वंदना के सन्दर्भ में उनका स्पष्ट मानना हैण वि देहो वंदिज्जिइ ण वि य कुलो ण वि य जाइसंजुतो। को वंदामि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ॥
(दसणपाहुड-27) न शरीर की वंदना की जाती है, न कुल की वन्दना की जाती है, किस गुणहीन की वंदना करूँ? क्योंकि गुणहीन मनुष्य न मुनि है और न श्रावक ही है।
गुणवान् को गुणहीन की वन्दना नहीं करना चाहिए- इस अभिप्राय को प्रवचनसार में इस प्रकार कहा है
'अधिगगुणा सामण्णे वटुंति गुणाधरेहिं किरियासु।
जदि ते मिच्छवजुत्ता हवंति पब्भट्टचारित्ता॥' (प्र.3/67)
अर्थात् जो मुनि, मुनि पद में स्वयं अधिक गुणवाले होकर गुणहीन मुनियों के साथ वन्दनादि क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं अर्थात् उन्हें नमस्कारादि करते हैं वे मिथ्यात्व से युक्त तथा चारित्र से भ्रष्ट होते हैं।