________________
अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में श्रमणों के षडावश्यक
- डॉ. अनेकान्त कुमार जैन
जैन आचार मीमांसा में मुनियों के आचार के अन्तर्गत षडावश्यकों का बहुत अधिक महत्त्व है। आध्यात्मिक विकास के लिए प्रतिदिन अवश्य-करणीय क्रियाओं एवं कर्तव्यों को आवश्यक (आवस्सय) कहते हैं। 'अवश' शब्द का सामान्य अर्थ है अकाम, अनिच्छु, स्वतन्त्र, रागद्वेषादि तथा इन्द्रियों की पराधीनता से रहित होना। आवश्यक का स्वरूप :
आचार्य कुन्दकुन्द तो यहाँ तक कहते हैं कि यह आवश्यक कर्मो का नाशक, योग और निर्वाण (निर्वृत्ति) का मार्ग है ही, साथ ही ये आत्मा में रत्नत्रय का आवास कराते हैं। आचार्य वट्टकर मूलाचार में कहते हैं कि जो रागद्वेष आदि विकारों के वशीभूत नहीं होता, वह 'अवश' है तथा उस अवश का आचरण या कर्तव्य आवश्यक कहलाता
नियमसार की टीका में आचार्य पद्ममल के अनुसार निरन्तर स्ववश में रहना ही निश्चय आवश्यक कर्म है। मुनि सदैव अन्तर्मुखता के कारण अन्यवश नहीं हैं, परन्तु साक्षात् स्ववश हैं। उस व्यावहारिक क्रिया प्रपञ्च से पराड्.मुख जीव को स्वात्माश्रित-निश्चयधर्मध्यानप्रधान परम आवश्यक कर्म है।
आचार्य कुन्दकुन्द आवश्यक का लक्षण निर्धारित करते हुए कहते
हैं
आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स॥ (नि. गा. 147) अर्थात् यदि तू आवश्यक को चाहता है तो तू आत्म स्वभावों में